राजा हरदौल १३
लड़का है। उसने अभी दुनिया नहीं देखी है । अपनी सलाहों से उसकी मदद करती रहना ।"
रानी की ज़बान बन्द हो गयी। अब अपने मन में कहने लगी, "हाय यह कहते हैं, बुन्देलों की स्त्रियों ऐसे अवसर पर रोया नहीं करतीं। शायद उनके हृदय नहीं होता, या अगर होता है तो उसमें प्रेम नहीं होता!" रानी कलेजे पर पत्थर रखकर आँसू पी गयी और हाथ जोड़कर राजा की ओर मुस्कराती हुई देखने लगी; पर क्या वह मुस्कराहट थी। जिस तरह अँधेरे मैदान में मसान की रोशनी अँधेरे को और भी अथाह कर देती है, उसी तरह रानी की मुस्कराहट उसके मन के अथाह दुःख को और भी प्रकट कर रही थी।
जुझारसिंह के चले जाने के बाद हरदौलसिंह राज करने लगा। थोड़े ही दिनों में उसके न्याय और प्रजा-वात्सल्य ने प्रजा का मन हर लिया। लोग जुझारसिंह को भूल गये। जुझारसिंह के शत्रु भी थे और मित्र भी; पर हरदौलसिंह का कोई शत्रु न था, सब मित्र ही थे । वह ऐसा हँसमुख और मधुरभाषी था कि उससे जो बातें कर लेता, वही जीवन-भर उसका भक्त बना रहता । राज-भर में ऐसा कोई न था जो उसके पास तक न पहुँच सकता हो । रात-दिन उसके दरबार का फाटक सबके लिए खुला रहता था। ओरछे को कभी ऐसा सर्वप्रिय राजा नसीब न हुआ था । वह उदार था, न्यायी था, विद्या और गुण का ग्राहक था; पर सबसे बड़ा गुण जो उसमें था, वह उसकी वीरता थी। उसका वह गुण हद दर्जे को पहुँच गया था। जिस जाति के जीवन का अवलम्ब तलवार पर है, वह अपने राजा के किसी गुण पर इतना नहीं रीझती जितना उसकी वीरता पर । हरदौल अपने गुणों से अपनी प्रजा के मन का भी राजा हो गया, जो मुल्क और माल पर राज करने से भी कठिन है । इस प्रकार एक वर्ष बीत गया । उधर दक्खिन में जुझारसिंह ने अपने प्रबंध से चारों ओर शाही दबदवा जमा दिया, इधर ओरछे में हरदौल ने प्रजा पर मोहन-मन्त्र फूँक दिया।
(२)
फाल्गुन का महीना या, अबीर और गुलाल से जमीन लाल हो रही थी। कामदेव का प्रभाव लोगों को भड़का रहा था। रवी ने खेतों में सुनहला फर्श