पाप का अग्निकुण्ड १३१ .. लगी। पिताजी बूढे थे ; सीने पर जखम गहरा लगा, गिर पड़े। उन्हें उठाकर लोग घर पर लाये। उनका चेहरा पीला था , पर उनकी आँखों से चिनगारियों निकल रही थी। मैं रोती हुई उनके सामने पायो । मुझे देखते ही उन्होंने सब श्रादमियों को वहाँ से हट जाने का सकेन किया। जब मैं और पिताजी अकेले रह गये, तो वे बोले-वेटी, तुम राजपुतानी हो ? मैं-जी हाँ। पिताजी-राजपूत वात के धनी होते हैं ? मैं-जी हों। पिताजी -इस राजपूत ने मेरी गाय की जान लो है, इसका बदला तुम्हे लेना होगा। मै-आपकी श्रागा का पालन करूँगी। पिताजी-अगर मेरा वेटा जीता होता तो मैं यह बोझ तुम्हारी गर्दन पर न रखता। मैं-आपको जो कुछ आशा होगी, मैं सिर-आँखों से पूरी करूँगी । पिताजी-तुम प्रतिज्ञा करती हो ? मैं-जी हों। पिताजी-इस प्रतिज्ञा को पूरा कर दिखायोगी। मैं-जहाँ तक मेरा वश चलेगा, मैं निश्चय यह प्रतिभा पूरी करूँगी। पिताजो-यह मेरी तलवार लो | जब तक तुम यह तलवार उस राजपूत के कलेजे में न भोक दो, तब तक भाग-विलास न करना । यह कहते कहते पिताजी के प्राण निकल गये । मैं उसी दिन से तलवार को कंपलों में छिपाये उस नौजवान राजपूत की खोज में घूमने लगी। वर्षों बीत गये। में कमी बस्तियों में जाती, कभी पहाड़ों-जंगलों की खाक छानती; पर उस नौजवान का कहीं पता न मिलता । एक दिन में बैठी हुई अपने फूटे भाग पर रो रही थी कि वदी नौजवान आमी प्राता दुधा दिग्पायी दिया । मुझे देखकर उसने पूछा, त् कौन है ? मैंने कहा, मैं दुखिया वासगी हूँ, श्राप मुझपर दया कीजिए और मुझे कुछ खाने को दीजिये । राजपूत ने कहा, अच्छा, मेरे साथ आ। मैं उठ खरी दुई । वह आदमी येसुध था। मैंने बिजली की तरह लपककर
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/११६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।