पाप का श्रमिकुण्ड १२० गयीं, तो देखा कि व्रजविलासिनी हरी-हरी घास पर लेटी हुई है और उसकी आँखों से आँसू बह रहे हैं। राजकुमारियों के अच्छे बर्ताव और स्नेहपूर्ण बात- चीत से उसकी सुन्दरता कुछ चमक गयी थी। इनके साय अब वह भी राजा- कुमारी जान पड़ती थी; पर इन सवों बातों के रहते भी वह वेचारी बहुधा एकान्त में बैठकर रोया करती। उसके दिल पर एक ऐसी चोट थी कि वह उसे दम भर भी चैन नहीं लेने देती थी। राजकुमारियाँ उस समय उसे रोती देखकर बढ़ी सहानुभूति के साथ उसके पास बैठ गयीं। गजनन्दिनी ने उसका सिर अपनी जाँच पर रख लिया और उसके गुलाब-से गालों को थप-यपाकर कहा- सखी, तुम अपने दिल का हाल हमें न बतायोगी १ क्या अब भी हम गैर हैं ? तुम्हारा यो अकेले दुःख की आग में जलना हमसे नहीं देखा जाता । व्रजविलासिनी आवाज सम्हालकर बोली-बहिन, मैं अभागिनी हूँ। मेरा हाल मत सुनो। राज.-अगर बुरा न मानों तो एक बात पूर्वी । व्रज-च्या, कहो! राज.--वही जो मैंने पहले दिन पृछा था, तुम्हारा व्याह हुअा है कि नहीं ! व्रज.--इसका जवार मैं क्या दूं? अभी नहीं हुश्रा । राज०-क्या किसी का प्रेम-वाण हृदय में चुमा है ? व्रज-नहीं बहिन, ईश्वर जानता है। -तो इतनी उदास क्यों रहती हो ? क्या प्रेम का ग्रानन्द उठाने को जी चाहता है ? बज०-नहीं, दुःख के सिवा मन में प्रेम को स्थान ही नहीं। रान-एम प्रेम का स्थान पैदा कर देंगी। नजविलासिनी इशारा समझ गयी और बोली-बहिन, 'न बातों की चर्चा न करो। राज-मैं अब तुम्हारा व्याह रचाऊँगी। दीवान जयचन्द को तुमने देया है। वजबिलामिनी ऑग्नों में आँसू भरकर बोली- राजकुमारी. मैं व्रतधारिणी हूँ और अपने रत को पूरा करना ही मेरे जीवन का उद्देश्य है । प्रण को निभाने राज०- ह
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