१२८ मानसरोवर बड़ी और श्रोठ सखे । चाल-ढाल में कोमलता थी और उसके डील-डौल की गठन बहुत ही मनोहर थी। अनुमान से जान पड़ता था कि समय ने इसकी यह दशा कर रखी है, पर एक समय वह भी होगा जब यह बड़ी सुन्दर होगी। इस स्त्री ने आकर चौखट चूमी और आशीर्वाद देकर फर्श पर बैठ गयी । राजनन्दिनी ने इसे सिर से पैर तक बड़े ध्यान से देखा और पूछा, "तुम्हारा नाम क्या है ?" उसने उत्तर दिया, "मुझे व्रजविलासिनी कहते हैं।" "कहाँ रहती हो " “यहाँ से तीन दिन की राह पर एक गाँव विक्रमनगर है, वहाँ मेरा घर है।" "सस्कृत कहाँ पढ़ी है ?" "मेरे पिताजी सस्कृत के बड़े पण्डित थे, उन्होंने थोड़ी-बहुत पढ़ा दी है।" "तुम्हारा व्याह तो हो गया है न?" व्याह का नाम सुनते ही व्रजविलासिनी की आँखों से आँसू बहने लगे। वह आवाज सम्हालक्र बोली-इसका जवाब मैं फिर कभी दूँगी, मेरी राम- कहानी बड़ी दुखमय है। उसे सुनकर श्रापको दुःख होगा, इसलिए इस समय क्षमा कीजिए। श्राज से व्रजविलासिनी वहीं रहने लगी। सस्कृत-साहित्य में उसका बहुत प्रवेश था । वह राजकुमारियों को प्रतिदिन रोचक कविता पढ़कर सुनाती थी। उसके रग, रूप और विद्या ने धीरे-धीरे राजकुमारियों के मन में उसके प्रति प्रेम और प्रतिष्ठा उत्पन्न कर दी । यहाँ तक कि राजकुमारियो और व्रजविलासिनी के बीच वड़ाई-छुटाई उठ गयी और वे सहेलियों की भाँति रहने लगी। ( २ ) कई महीने बीत गये । कुँवर पृथ्वीसिंह और धर्म दोनों महाराज के साथ अफगानिस्तान की मुहीम पर गये हुए थे। यह विरह की घड़ियों मेघदूत और रघुवश के पढ़ने में कटीं। व्रजविलासिनी को कालिदास की कविता से बहुत प्रेम था और उनके काव्यों की व्याख्या ऐसी उत्तमता से करती और उसमें ऐसी वारीकियों निकालती कि दोनों राजकुमारियाँ मुग्ध हो जाती । एक दिन सध्या का समय था, दोनों राजकुमारियाँ फुलवाड़ी में सैर करने
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