मृत्यु के पीछे १२६ का इरादा है १ घर की सेवा करनेवाला भी कोई चाहिए कि सब देश की ही सेवा करेंगे? ईश्वर-कृष्णचन्द्र यहाँ किसी से बुरा न रहेगा। मानकी-क्षमा कीजिए। बाज़ आयी। वह कोई दूसग काम करेगा जहाँ चार पैसे मिलें । यह घर-फूंक काम आप ही को मुबारक रहे । ईश्वर र-वकालत में भेजोगी, पर देस लेना, पछताना पड़ेगा। कृष्णचन्द्र उस पेशे के लिए सर्वथा अयोग्य है। मानकी-वह चाहे मजूरी करे, पर इस काम में न डालूँगी। ईश्वरo-तुमने मुझे देखकर समझ लिया कि इस काम में घाटा-ही-घाटा है । पर इसी देश में ऐसे भाग्यवान् लोग मौजूद हैं जो पत्रों की बदौलत धन और कीर्ति से मालामाल हो रहे हैं। मानकी-इस काम में तो अगर कचन भी बरसे, तो मैं उसे न आने दूं। सारा जीवन वैराग्य में कट गया । अब कुछ दिन भोग भी करना चाहती हूँ। यह जाति का सच्चा सेवक अन्त को जातीय कष्टों के साथ रोग के कप्टो कान सह सका । इस वार्तालाप के बाद मुश्किल से नौ महीने गुज़रे थे कि ईश्वरचन्द्र ने ससार से प्रस्थान किया । उनका सारा जीवन सत्य के पोपण, न्याय की रक्षा और प्रजा-कष्टों के विरोध में कटा था। अपने सिद्धान्तो के पालन में उन्द कितनी ही बार अधिकारियों की तीव्र दृष्टि का भाजन बनना पड़ा था, कितनः ही बार जनता का अविश्वास, यहाँ तक कि मित्रों की अवहेलना भी सहनी पड़ी थी, पर उन्दोंने अपनी आत्मा का कभी हनन नहीं किया। प्रात्मा क गौरव के सामने धन को कुछ न समझा। इस शोक समाचार के फैलते ही सारे शहर में कुहराम मच गया। बाजार बन्द हो गये, शोक के जलते होने लगे, सहयोगी पत्रों ने प्रतिद्वन्द्विता के भाव को त्याग दिया, चारों ओर से एक ध्वनि आती थी कि देश से एक स्वतन्त्र, सत्यवादी और विचारशील सम्पादक तथा एक निर्मीक, त्यागी, देश-भक्क उठ गया और उसका स्थान चिरकाल तक खाली रहेगा। ईश्वरचन्द्र इतने बहुजनप्रिय हैं, इसका उनके घरवालों को ध्यान भी न था। उनका शव निकला तो सारा शहर, गण्य-श्रगण्य, बयों के साथ था। उनके स्मारक बनने लगे।
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