१२२ मानसरोवर उन्हें श्रम का सपक्षी बना दिया था । धनवादियों का खण्डन और प्रतिवाद करते हुए उनके खून में गरमी श्रा जाती थी, शब्दों से चिनगारियों निकलने लगती थीं, यद्यपि यह चिनगारियाँ केन्द्रस्थ गरमी को छिन्न किये देती थीं। एक दित रात के दस बज गये थे । सरदी खूब पड़ रही थी। मानकी दबे पैर उनके कमरे में आयी । दीपक की ज्योति में उनके मुख का पीलापन और भी स्पष्ट हो गया था। वह हाथ में कलम लिये किसी विचार में मग्न थे । मानकी के आने की उन्हें जरा भी आहट न मिली। मानकी एक क्षण तक उन्हें वेदनायुक्त नेत्रों से ताकती रही। तब बोली, 'अब तो यह पोया बन्द करो । आधी रात होने को प्राई । खाना पानी हुआ जाता है ।' ईश्वरचन्द्र ने चौंककर सिर उठाया और बोले- क्यों, क्या आधी रात हो गई १ नहीं, अभी मुश्किल से दस बजे होंगे। मुझे अभी जरा भी भूख नहीं है। मानकी- कुछ थोड़ा-सा खा लो न । ईश्वर 0-एक ग्रास भी नहीं। मुझे इसी समय अपना लेख समाप्त करना है। मानकी- मैं देखती हूँ तुम्हारी दशा दिन-दिन बिगड़ती जाती है । दवा क्यों नहीं करते ? जान खपाकर थोडे ही काम किया जाता है ? ईश्वर०-अपनी जान को देखू या इस घोर संग्राम को देखू जिसने समस्त देश में हलचल मचा रखी है। हजारों-लाखो जानों की हिमायत में एक जान न भी रहे तो क्या चिन्ता ? मानको-कोई सुयोग्य सहायक क्यों नहीं रख लेते ? ईश्वरचन्द्र ने ठही साँस लेकर कहा-बहुत खोजता हूँ, पर कोई नहीं मिल्ता । एक विचार कई दिनों से मेरे मन में उठ रहा है, अगर तुम धैर्य से सुनना चाहो, तो कहूँ। मानकी-कहो, सुनूँगी । मानने लायक होगी, तो मानूंगी क्यो नहीं ! ईश्वरचन्द्र-मैं चाहता हूँ कि कृष्णचन्द्र को अपने काम में शरीक कर लूँ । अब तो वह एम० ए० भी हो गया । इस पेशे से उसे रुचि भी है, मालूम होता है कि ईश्वर ने उसे इसी काम के लिए बनाया है। मानकी ने अवहेलना-भाव से कहा--क्या अपने साथ उसे भी ले डूबने
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