१२० मानसरोवर किया, जातीय श्रान्दोलनों में अग्रसर हुए, पुस्तकें लिखीं, एक दैनिक पत्र निकाला, अधिकारियों के भी सम्मानपात्र हुए। बड़ा लड़का बी० ए० में जा पहुँचा, छोटे लड़के नीचे के दरजों में थे । एक लड़की का विवाह भी एक धन- सम्पन्न कुल में किया । विदित यही होता था कि उनका जीवन बड़ा ही सुखमय है , मगर उनकी आर्थिक दशा अब भी सतोषजनक न थी। खर्च आमदनी से बढ़ा हुश्रा था। घर की कई हजार की जायदाद हाथ से निकल गयी, इस पर भी बक का कुछ-न-कुछ देना सिर पर सवार रहता था। बाजार में भी उनकी साख न थी। कभी-कभी तो यहाँ तक नौवत श्रा जाती कि उन्हें बाज़ार का रास्ता छोड़ना पड़ता। अब वह अक्सर अपनी युवावस्था की अदूरदर्शिता पर अफसोस करते थे । जातीय सेवा का भाव अब भी उनके हृदय में तरंगें मारता था; लेकिन वह देखते थे कि काम तो मैं तय करता हूँ और यश वकीलों और सेठों के हिस्सों में आ जाता था। उनकी गिनती अभी तक छुट-भैयों में यो। यद्यपि सारा नगर जानता था कि यहाँ के सार्वजनिक जीवन के प्राण वही हैं, पर यह भाव कमी व्यक्त न होता था। इन्हीं कारणों से ईश्वरचन्द्र को अब सम्पादन- कार्य से अरुचि होती थी। दिनों-दिन उत्साह क्षीण होता जाता था लेकिन इस जाल से निकलने का कोई उपाय न सूझता था। उनकी रचना में अब सजीवता न यी, न लेखनी में शक्ति । उनके पत्र और पत्रिका दोनों ही से उदासीनता का भाव झलकता था । उन्होंने सारा भार सहायकों पर छोड़ दिया या, खुद बहुत कम काम करते थे। हाँ, दोनों पत्रों की जड़ जम चुकी थी, इसलिए ग्राहकसख्या कम न होने पाती थी । वे अपने नाम पर चलते थे । लेकिन इस संघर्ष और सग्राम के काल में उदासीनता का निर्वाह कहाँ। "गौरव" के प्रतियोगी खड़े कर दिये, जिनके नवीन उत्साह ने “गौरव" से बाजी मार ली। उसका बाजार ठडा होने लगा। नये प्रतियोगियों का जनता ने बड़े हर्ष से स्वागत किया। उनकी उन्नति होने लगी । यद्यपि उनके सिद्धान्त भी वही, लेखक भी वही, विषय भी वही थे; लेकिन अागन्तुकों ने उन्हों पुरानी वातों मे नयी जान डाल दी। उनका उत्साह देख ईश्वरचन्द्र को भी जोश आया कि एक बार फिर अपनी रुकी हुई गाड़ी में जोर लगायें, लेकिन न अपने में सामर्थ्य थी, न कोई हाय बॅटानेवाला नजर आता था। इधर-उधर निराश नेत्रों )
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