पड़कर वह चिन- वहिष्कार; सन्देह नहीं था कि सोमदत्त ने आग लगा दी है। गोली लकड़ी मैं गारी वुझ जायगी, या जगल को सूखी पत्तियाँ हाहाकार करके जल उठेगी, यह कौन जान सकता है , लेकिन इस सप्ताह के गुजरते ही अग्नि का प्रकोप होने लगा। ज्ञान- चन्द्र एक महाजन के मुनीम थे। उस महाजन ने कह दिया मेरे यहाँ अब आपका काम नहीं । जीविका का दूसरा साधन यजमानी थी। यजमान भी एक-एक करके उन्हें जवाब देने लगे। यहाँ तक कि उनके द्वार पर लोगो का आना-जाना बन्द हो गया। आग सूखी पत्तियों मे लगकर अव हरे वृक्ष के चारों ओर मॅडराने लगी। पर, ज्ञानचन्द्र के मुख में गोविन्दी के प्रति एक भी कह, अमृदु शब्द न था। वह इस सामाजिक दण्ड की शायद कुछ परवा न करते, यदि दुर्भाग्यवश इसने उनकी जीविका के द्वार न वन्द कर दिये होते । गोविन्दी सब कुछ समझती थी , पर सकोच के मारे कुछ न कह सकती थी। उसी के कारण उसके प्राणप्रिय पति की यह दशा हो रही है, यह उसके लिए डूब मरने की बात थी। पर, कैसे प्राणों का उत्सर्ग करे। कैसे जीवन-मोह से मुक्त हो। इस विपत्ति मे स्वामी के प्रति उसके रोम-रोम से शुभ कामनाओं की सरिता सी बहती थी पर मुँह से एक शब्द भी न निकलता या । भाग्य की सबसे निष्ठुर लीला उस दिन हुई, जब कालिन्दी भी विना कुछ कहे-सुने सोमदत्त के घर जा पहुँची। जिसके लिए यह सारी यातनाएँ झेलनी पड़ीं, उसी ने अन्त में बेवफाई की। ज्ञानचन्द्र ने सुना, तो केवल सुसकुरा दिये , पर गोविन्दी इस कुटिल आघात को इतनी शान्ति से सहन न कर सकी। कालिन्दी के प्रति उसके मुख से अप्रिय शब्द निक्ल ही आये। ज्ञानचन्द्र ने कहा- उसे व्यर्थ ही कोसती हो । प्रिये, उसका कोई दोष नहीं । भगवान् हमारी परीक्षा ले रहे हैं । इस वक्त धैर्य के सिवा हमे किसी से कोई आशा न रखनी चाहिए । जिन भावो को गोविन्दी कई दिनों से अन्तस्तल मे दबाती चली आती थी, वे धैर्य का चाँध टूटते ही बड़े वेग से बाहर निकल पड़े। पति के सम्मुख अपराधियों की भांति हाथ बांधकर उसने कहा स्वामी, मेरे ही कारण आपको यह सारे पापड़ बेलने पड़ रहे हैं। मैं ही आपके कुल की क्लकिनी हूँ। क्यों न मुझे किसी ऐसी जगह भेज दीजिए, जहाँ कोई मेरी सूरत न देखे । मैं आपसे सत्य कहती हूँ.. । ज्ञानचन्द्र ने गोविन्दी को और कुछ न कहने दिया। उसे हृदय से लगाकर बोले-प्रिये, ऐसी बातों से मुझे दुखी न करो। तुम आज भी उतनी ही पवित्र हो, ७
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