९२ मानसरोवर है। उन्हें इतनी देर तो कभी नहीं होती थी। आज इतनी देर कहाँ लगा रहे हैं ? शंका से उसका हृदय काँप रहा है । सहसा सरदाने कमरे का द्वार खुलने की आवाज़ आई। गोविन्दी दौड़ी हुई बैठक मे आई , लेकिन पति का मुख देखते ही उसकी सारी देह शिथिल पड़ गई। उस मुख पर हास्य था , पर उस हास्य में भाग्य-तिरस्कार झलक रहा था। विधि- वाम ने ऐसे सीधे-सादे मनुष्य को भी अपने कोड़ा-कौशल के लिए चुन लिया, क्या यह रहस्य रोने के योग्य था ? रहस्य रोने की वस्तु नहीं, हॅसने ही की वस्तु ज्ञानचन्द्र ने गोविन्दी की और नहीं देखा । कपड़े उतारकर सावधानी से अल- गनी पर रखे, जूता उतारा और फर्श पर बैठकर एक पुस्तक के पन्ने उलटने लगे गोविन्दी ने डरते-डरते कहा-आज इतनी देर कहाँ को। भोजन ठण्डा हो 1 रहा है। ज्ञान- ज्ञानचन्द्र ने फर्श की ओर ताकते हुए कहा-तुम लोग भोजन कर लो, मैं एक मित्र के घर खा आया हूँ। गोविन्दी इसका आशय समझ गई ! एक क्षण के बाद फिर बोली-चलो, थोड़ा-सा हो खा लो। -अब विलकुल भूख नहीं है। गोविन्दी-तो मैं भी जाकर सो रहती हूँ। ज्ञानचन्द्र ने अब गोविन्दी की ओर देखकर कहा-क्यों ? तुम क्यों न खाओगी ? गोविन्दी-मैं तुम्हारी ही थाली का जूठन खाया करती हूँ। इससे अधिक वह और कुछ न कह सकी । गला भर आया । ज्ञानचन्द्र ने उसके समीप आकर कहा - मैं सच कहता हूँ गोविन्दी, एक मित्र के घर भोजन कर आया हूँ। तुम जाकर खा लो। ( ४ ) गोविन्दी पलग पर पड़ी हुई चिन्ता, नैराश्य और विषाद के अपार सागर में गोते खा रही थी। यदि कालिन्दी का उसने बहिष्कार कर दिया होता, तो आज उसे इस विपत्ति का सामना न करना पड़ता ; किन्तु यह अमानुषीय व्यवहार उसके लिए असाध्य था और इस दसा में भी उसे इसका दु.ख न था। ज्ञानचन्द्र की ओर से यों तिरस्कृत होने का भी उसे दु ख न था । जो ज्ञानचन्द्र नित्य धर्म और सज्जनता की
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