८६ मानसरोवर - जामिद अब तक चुपचाप खड़ा था। ज्योंही स्त्री दरवाजे की तरफ चली, और काज़ी साहब ने उसका हाथ पकड़कर खींचा, जामिद ने तुरन्त दरवाज़ा खोल दिया, और काजी साहब से वोला- इन्हें छोड़ दीजिए। काजी-क्या बकता है। जामिद-कुछ नहीं। खैरियत इसी मे है कि इन्हें छोड़ दीजिए। लेकिन जव काजी साहब ने उस महिला का हाथ न छोड़ा, जौर तांगेवाला भी उसे पकड़ने के लिए वढा, तो जामिद ने एक धक्का देकर काज़ी साहब को वकेल दिया। और उस स्त्री का हाथ पकड़े हुए कमरे से बाहर निकल गया। तोंगेवाला पीछे लपका , मगर जामिद ने उसे इतने ज़ोर से धक्का दिया कि वह औंधे मुंह जा गिरा । एक क्षण में जामिद और स्त्री, दोनों सड़क पर थे । जामिद -आपका घर किस मुहल्ले में है ? औरत - अहियागज में। जामिद -चलिए, मैं आपको पहुँचा आऊँ । औरत-इससे बड़ी और क्या मेहरबानी होगी। मैं आपकी इस नेकी को कभी न भूलूंगी। आपने आज मेरी आवरू वचा ली, नहीं तो मैं कहीं की न रहती। मुझे अब मालूम हुआ कि अच्छे और बुरे सब जगह होते हैं। मेरे शौहर का नाम पण्डित राजकुमार है । उसी वक्त एक तांगा सड़क पर आता दिखाई दिया। जामिद ने स्त्री को उसपर बिठा दिया, और खुद बैठना हो चाहता था कि ऊपर से काजी साहब ने जामिद पर लट्ठ चलाया और डडा तागे से टकराया। जामिद तोंगे में आ बैठा और तांगा । चल दिया। अहियागज में पण्डित राजकुमार का पता लगाने में कोई कठिनाई न पड़ी। जामिद ने ज्योंही आवाज़ दी, वह घबराये हुए बाहर निकल आये, और स्त्री को देखकर वोले--तुम कहाँ रह गई थीं, इन्दिरा ? मैंने तो तुम्हे स्टेशन पर कहीं न देखा । मुझे पहुँचने में ज़रा देर हो गई थी। तुम्हें इतनी देर कहाँ लगी ? इन्दिरा ने घर के अन्दर कदम रखते हुए कहा-वड़ी लम्बी कथा है, ज़रा दम ले लेने दो, तो वता दूँगी । बस, इतना ही समझ लो कि आज अगर इस मुसल- मान ने मेरी मदद न की होती, तो आवरू चली गई थी।
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