हिसा परमो धर्म. एक दिन उठा, और एक तरफ की राह ली। दो दिन के बाद एक शहर में जा पहुँचा । शहर बहुत बड़ा था । महल आसमान से बातें करनेवाले। सड़कें चौड़ी और साफ । बाज़ार गुलज़ार , मसजिदों और मन्दिरों की संख्या अगर मकानों से अधिक न थी, तो कम भी नहीं। देहात में न तो कोई मसजिद थी, न कोई मन्दिर । मुस- लमान लोग एक चबूतरे पर नमाज़ पढ़ लेते थे। हिन्दू एक वृक्ष के नीचे पानी चढा दिया करते थे, नगर में धर्म का यह माहात्म्य देखकर जामिद को बड़ा कुतूहल और आनन्द हुआ। उसकी दृष्टि में मज़हब का जितना सम्मान था, उतना और किसी सासारिक वस्तु का नहीं। वह सोचने लगा-ये लोग कितने ईमान के पक्के, कितने सत्यवादी हैं। इनमें कितनी दया, कितना विवेक, कितनी सहानुभूति होगी, तभी तो खुदा ने इन्हें इतना माना है। वह हर आने-जानेवाले को श्रद्धा की दृष्टि से देखता और उसके सामने विनय से सिर झुकाता था। यहाँ के सभी प्राणी उसे देवता-तुल्य मालूम होते थे। घूमते-घूमते साँझ हो गई। वह थककर एक मन्दिर के चबूतरे पर जा बैठा । मदिर बहुत बड़ा था, ऊपर सुनहला कलश चमक रहा था । जगमोहन पर संगमरमर के चौके जड़े हुए थे, मगर आँगन में जगह-जगह गोबर और कूड़ा पड़ा था । जामिद को गंदगी से चिढ़ थी , देवालय की यह दशा देखकर उससे न रहा गया, इधर-उधर निगाह दौड़ाई कि कहीं झाडू मिल जाय, तो साफ कर दूं, पर झाड़ कहीं नज़र न आई। विवश होकर उसने अपने दामन से चबूतरे को साफ करना शुरू कर दिया । जरा देर में भक्तो का जमाव होने लगा। उन्होंने जामिद को चबूतरा साफ करते देखा, तो आपस में बातें करने लगे- 'है तो मुसलमान ! 'मेहतर होगा।' 'नहीं, मेहतर अपने दामन से सफाई नहीं करता । कोई पागल मालूम होता है।' 'उधर का भेदिया न हो?' 'नहीं चेहरे से तो बड़ा गरीव मालूम होता है।' 'हसन निजामी का कोई मुरीद होगा।' 'अजी, गोवर के लालच से सफाई कर रहा है। कोई भठ्यिारा होगा (जामिद से) गोवर न ले जाना ने, समझा ? कहाँ रहता है ?'
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