पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/८२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हिंसा परमो धर्मः दुनिया में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जो किसी के नौकर न होते हुए सबके नौकर होते हैं। जिन्हें कुछ अपना खास काम न होने पर भी सिर उठाने की फुरसत नहीं होती। जामिद इसी श्रेणी के मनुष्यों में था। बिलकुल बेफिक्र, न किसी से दोस्ती, न किसी से दुश्मनी । जो ज़रा हँसकर वोला, उसका बे-दाम का गुलाम हो गया। बेकाम का काम करने में उसे मज़ा आता था। गाँव में कोई बीमार पड़े, वह रोगी की सेवा-शुश्रूपा के लिए हाज़िर है। कहिए, तो आधीरात को हकीम के घर चला जाय, किसी जड़ी-बूटी की तलाश में मज़िलों की खाक छान आये। मुमकिन न था कि किसी गरीब पर अत्याचार होते देखे और चुप रह जाय। फिर चाहे कोई उसे मार ही डाले, वह हिमायत करने से बाज़ न आता था। ऐसे सैकड़ों ही मौके उसके सामने आ चुके थे। कास्टेबिलों से आये दिन उसकी छेड़-छाड़ होती ही रहती थी। इसी लिए लोग उसे बौड़म समझते थे। और बात भी यही थी। जो आदमी किसी का बोझ भारी देखकर, उससे छीनकर, अपने सिर पर ले ले, किसी का छप्पर उठाने या आग बुझाने के लिए कोसों दौड़ा चला जाय, उसे समझदार कौन कहेगा ? साराश यह कि उसको जात से दूसरों को चाहे कितना ही फायदा पहुंचे, अपना कोई उपकार न होता था यहाँ तक कि वह रोटियों के लिए भी दूसरों का मुहताज था। दीवाना तो वह था, और उसका गम दूसरे खाते थे। (२) आखिर जब लोगों ने बहुत धिक्कारा-क्यों अपना जीवन नष्ट कर रहे हो, तुम दूसरों के लिए मरते हो, कोई तुम्हारा भी पूछनेवाला है ? अगर एक दिन बीमार पड़ जाओ, तो कोई चुल्लू-भर पानी न दे , जब तक दूसरों की सेवा करते हो, लोग खैरात समझकर खाने को दे देते हैं , जिस दिन आ पड़ेगी, कोई सीधे मुंह चात भी न करेगा, तब जामिद की आँखें खुलीं। वरतन-भीड़ा कुछ था ही नहीं।