पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/७

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मन्दिर

.. (३) दिन-भर जियावन को तबीयत अच्छी रही। उसने थोड़ी-सी खिचड़ी खाई, दो- एक बार धीरे-धीरे द्वार पर भी आया और हमजोलियों के साथ खेल न सकने पर भी उन्हें खेलते देखकर उसका जी बहल गया। सुखिया ने समझा, बच्चा अच्छा हो गया। दो-एक दिन में जब पैसे हाथ में आ जायेंगे, तो वह एक दिन ठाकुरजी की पूजा करने चली जायगी। जाड़े के दिन झाडू -वहारू, नहाने-धोने और खाने-पीने में कट गये , मगर जब सन्ध्या-समय फिर जियावन का जी भारी हो गया, तब सुखिया घवरा उठो । तुरन्त मन में शका उत्पन्न हुई कि पूजा में विलम्ब करने से ही बालक फिर मुरझा गया है । अभी थोड़ा-सा दिन वाकी था। बच्चे को लेटाकर वह पूजा का सामान तैयार करने लगी। फूल तो ज़मींदार के बगीचे में मिल गये। तुलसीदल द्वार ही पर था ; पर ठाकुरजी के भोग के लिए कुल्ल मिष्टान तो चाहिए ; नहीं तो गाँववालों को वाँटेगी क्या ? चढाने के लिए कम-से-कम एक आना तो चाहिए ही । सारा गांव छान आई, कहीं पैसे उधार न मिले। तव वह हताश हो गई। हाय रे अदिन ! कोई चार आने पैसे भी नहीं देता। आखिर उसने अपने हाथों के चाँदी के कड़े उतारे और दौड़ी हुई वनिये की दुकान पर गई, कड़े गिरों रखे, बतासे लिये और दौड़ी हुई घर आई। पूजा का सामान तैयार हो गया, तो उसने बालक को गोद में उठाया और दूसरे हाथ में पूजा की थाली लिये मन्दिर को ओर चली । मन्दिर में आरती का घण्टा बज रहा था। दस-पाँच भक्त-जन खड़े स्तुति कर रहे थे। इतने में सुखिया जाकर मन्दिर के सामने खड़ी हो गई। पुजारी ने पूछा-क्या है रे ? क्या करने आई है ? सुखिया चबूतरे पर आकर बोली-ठाकुरजी की मनौती की थी, महाराज, पूजा करने आई हूँ। पुजारीजी दिन-भर ज़मींदार के असामियों की पूजा किया करते थे और शाम- सबेरे ठाकुरजो की। रात को मन्दिर ही में सोते थे, मन्दिर ही में आपका भोजन भी बनता था, जिससे ठाकुरद्वारे की सारी अस्तरकारी काली पड़ गई थी। स्वभाव के बड़े दयालु थे, निष्ठावान् ऐसे कि चाहे कितनी ही ठण्ठ पड़े, कितनी ही ठण्डी हवा चले, विना स्नान किये मुँह में पानी तक न डालते थे। अगर इस पर उनके हाथों और पैरों में मैल की मोटी तह जमी हुई थी, तो इसमे उनका कोई दोष न था !