मन्त्र घरवालों ने। सभा के मुख-पत्र में उनकी मृत्यु पर आँसू बहाये गये उनके कामो की प्रशसा की गई, और उनका स्मारक बनाने के लिए चन्दा खोल दिया गया। घरवाले भी रो-पीटकर बैठ रहे। उधर पण्डितजी दूध और घी खाकर चौक-चौबन्द हो गये । चेहरे पर खून की 'सुर्सी दौड़ गई, देह भर आई। देहात के जल-वायु ने वह काम कर दिखाया, जो कभी मलाई और मक्खन से न हुआ था। पहले की तरह तैयार तो वह न हुए , पर फुर्ती और चुस्ती दुगुनी हो गई। मोटाई का आलस्य अव नाम को भो न या । उनमें एक नये जीवन का संचार हो गया । जाड़ा शुरू हो गया था। पण्डितजी घर लौटने की तैयारियां कर रहे थे। इतने मे प्लेग का आक्रमण हुआ, और गाँव के तीन आदमी बीमार हो गये । बूढा चौधरी भी उन्हीं में या। घरवाले इन रोगियो को छोड़कर भाग खड़े हुए। वहाँ का दस्तूर था कि जिन वीमारियों को वे लोग दैवी कोप समझते थे, उनके रोगियो को छोड़कर चले जाते थे। उन्हें बचाना देवताओं से वैर मोल लेना था, और देवताओं से वैर करके कहाँ जाते ? जिस प्राणो को देवताओं ने चुन लिया, उसे भला वे उसके हायों से छीनने का साहस कसे करते 2 पण्डितजी को भी लोगों ने साय ले जाना चाहा , किन्तु पण्डितजी न गये। उन्होंने गाँव में रहकर रोगियों की रक्षा करने का निश्चय किया । जिस प्राणी ने उन्हें मौत के पजे से छुड़ाया था, उसे इस दशा मे छोड़कर वह कैसे जाते ? उपकार ने उनकी आत्मा को जगा दिया था। बूढे चौधरी ने तसरे दिन होश आने पर जब उन्हें अपने पास खड़े देखा, तो बोला-महाराज, तुम यहाँ क्यो आ गये ? मेरे लिए देवताओं का हुक्म आ गया है। अब मैं किसी तरह नहीं रुक सकता। तुम क्यों अपनी जान जोखिम में डालने हो ? मुझ पर दया करो, चले जाओ। लेकिन पण्डितजी पर कोई असर न हुआ। वह वारी-बारी से तीनों रोगियों के पास जाते, और कभी उनको गिल्टियां सेंकते, कभी उन्हें पुराणों की कथाएँ सुनाते । घरों में नाज, वरतन आदि सब ज्यों-के-त्यो रखे हुए थे । पण्डितनो पथ्य वना-बनाकर रोगियों को खिलाते। रात को जब रोगी भो सो जाते, ओर सारा गांव भाय-भाय करने लगता, तो पण्डितजी को भौति-भांति के भयकर जन्तु दिखाई देते। उनके कलेजे में धड़कन होने लगती , लेकिन वहाँ से टलने का नाम ना 1 उन्होंने
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