४४ मानसरोवर धर्म में वही ऊँचा है, जो बलवान् है। वही नीच है, जो निर्बल है। यही आपका धर्म है ? यह कहकर बूढ़ा वहाँ से चला गया, और उसके साथ ही और लोग भी उठ खड़े हुए। केवल चौबेजी और उनके दलवाले मच पर रह गये, मानो गान समाप्त हो जाने के बाद उसकी प्रतिध्वनि वायु में गूंज रही हो । ( ४ ) तबलीग़वालों ने जबसे चौबेजी के आने की खबर सुनी थी, इस फिल में थे कि किसी उपाय से इन सवको यहाँ से दूर करना चाहिए। चौबेजी का नाम दूर-दूर तक प्रसिद्ध था। जानते थे, यह यहाँ जम गया, तो हमारी सारी की-कराई मेहनत व्यर्थ हो जायगी। इसके कदम यहाँ जमने न पायें। मुल्लाओं ने उपाय सोचना शुरू किया। बहुत वाद-विवाद, हुज्जत और दलील के बाद निश्चय हुआ कि इस काफिर को कत्ल कर दिया जाय । ऐसा सवाव लूटने के लिए आदमियों को क्या कमी ? उसके लिए तो जन्नत का दरवाज़ा खुल जायगा, हरें उसकी बलाएँ लेंगी, फरिश्ते उसके कदमों की खाक का सुरमा बनायेंगे, रसूल उसके सर पर बरकत का हाथ रखेंगे, खुदावद-करीम उसे सीने से लगायेंगे और कहेंगे--तू मेरा प्यारा दोस्त है । दो हट्ट. कट्टे जवानों ने तुरन्त वीड़ा उठा लिया । रात के दस बज गये थे। हिन्दू-सभा के कैंप में सन्नाटा था। केवल चौवेजी अपनी रावटी मे बैठे हिन्दू-सभा के मत्री को पत्र लिख रहे थे-- यहाँ सबसे बड़ी आवश्यकता धन की है। रुपया, रुपया, रुपया ! जितना भेज सकें भेजिए । डेपुटेशन भेजकर वसूल कीजिए, मोटे महाजनों की जेब टटोलिए, भिक्षा मांगिए । विना वन के इन अभागों का उद्धार न होगा। जब तक कोई पाठशाला न खुले, कोई चिकि- त्सालय न स्थापित हो, कोई वाचनालय न हो, इन्हें कैसे विश्वास आयेगा कि हिन्दू- सभा उनकी हितचिंतक है। तबलीग्रवाले जितना खर्च कर रहे हैं, उसका आधा भी मुझे मिल जाय, तो हिन्दू-धर्म की पताका फहराने लगे। केवल व्याख्यानों से काम न चलेगा। असोसों से कोई जिंदा नहीं रहता। सहसा किसी की आहट पाकर वह चौंक पड़े। आँखें ऊपर उठाई तो देखा, दो आदमी सामने खड़े हैं। पण्डितजी ने शकित होकर पूछा--तुम कौन हो ? क्या काम है?
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