मन्त्र ४१ आविर्भाव हुआ था, उनकी आर्थिक दशा, जो पहले बहुत शोचनीय रहती थी, बहुत कुछ सम्हल गई थी। लेकिन जाति के उपासको का ऐसा सौभाग्य कहाँ कि शान्ति-निवास का आनन्द उठा सकें ! उनका तो जन्म ही मारे-मारे फिरने के लिए होता है। खबर आई कि मदरास-प्रान्त में तबलीग्रवालों ने तूफान मचा रखा है। हिन्दुओं के गाँव-के-गाँव मुसलमान होते जाते हैं । मुत्लाओं ने बड़े जोश से तबलीग का काम शुरू किया है , अगर हिन्दू-सभा ने इस प्रवाह को रोकने की आयोजना न की, तो सारा प्रान्त हिन्दुओं से शून्य हो जायगा-किसी शिखाधारी की सूरत न नज़र आयेगी। हिन्दू-सभा में खलबली मच गई। तुरन्त एक विशेष अधिवेशन हुआ और नेताओं के सामने यह समस्या उपस्थित की गई। बहुत सोच-विचार के बाद निश्चय हुआ कि चौबेजी पर इस कार्य का भार रखा जाय । उनसे प्रार्थना की जाय कि वह तुरन्त मदरास चले जायें, और धर्म-विमुख बन्धुओं का उद्धार करें। कहने ही की देर थी। चौबेजी तो हिन्दू-जाति की सेवा के लिए अपने को अर्पण ही कर चुके थे, पर्वत-यात्रा का विचार रोक दिया, और मदरास जाने को तैयार हो गये। हिन्दू- सभा के मन्त्री ने आँखों मे आँसू भरकर उनसे विनय की कि महाराज, यह बीड़ा आप ही उठा सकते हैं। आप ही को परमात्मा ने इतनी सामर्थ्य दी है। आपके सिवा ऐसा कोई दूसरा मनुष्य भारतवर्ष मे नहीं है, जो इस घोर विपत्ति में काम आये । जाति की दीन-हीन दशा पर दया कीजिए । चौवेजी इस प्रार्थना को अस्वीकार न कर सके । फौरन सेवकों की एक मण्डली वनी और पण्डितजी के नेतृत्व में रवाना हुई । हिन्दू-सभा ने उसे बड़ी धूम से विदाई का भोज दिया। एक उदार रईस ने चौबेजी को एक थैली भेंट की, और रेलवे स्टेशन पर हज़ारों आदमी उन्हें विदा करने आये । यात्रा का वृत्तान्त लिखने की जरूरत नहीं। हर एक बड़े स्टेशन पर सेवकों का सम्मानपूर्ण स्वागत हुआ। कई जगह थैलियाँ मिली ! रतलाम की रियासत ने एक शामियाना भेंट किया। वड़ोदा ने एक मोटर दी कि सेवकों को पैदल चलने का कष्ट न उठाना पड़े, यहाँ तक कि मदरास पहुँचते-पहुँचते सेवादल के पास एक माकूल रकम के अतिरिक्त ज़रूरत की कितनी चीजें जमा हो गई । वहाँ आवादी से दूर खुले हुए मैदान मे हिन्दू-सभा का पड़ाव पड़ा। शामियाने पर राष्ट्रीय-झण्डा
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