& 'क्या रुपये और कपड़े नहीं मिले ?' 'अभी नहीं मिले। चौधरी साहब कहते हैं-इस वक्त बचत में रुपये नहीं हैं। फिर आकर ले जाना।' 'कुछ नहीं मिला। 'एक पैसा भी नहीं। कहते हैं, कुछ बचत नहीं हुई। मैंने सोचा था, कुछ रुपये मिल जायेंगे, तो पढने की किताबें ले लूंगा ! सो कुछ न मिला। राह-खर्च भी नहीं दिया । कहते हैं-कौन दूर है, पैदल चले जाओ!' मुझे ऐसा क्रोव आया कि. चलकर चौवरो को खूब आड़े हाथों लूं । वेश्याओं के लिए रुपये, सवारियों सब कुछ , पर बेचारे रामचन्द्र और उनके साथियों के लिए कुछ भी नहीं ! जिन लोगों ने रात को आवादोज़ान पर दस-दस, बोस-बीस रुपये न्योछावर किये थे, उनके पास क्या इनके लिए दो-दो, चार-चार आने पैसे मी नहीं। पिताजी ने भी तो आवादीज़ान को एक अशफो दी थी। देखू , इनके नाम पर क्या देते हैं ! मैं दौड़ा हुआ पिताजी के पास गया। वह कहीं तफ्तीश पर जाने को तैयार खड़े थे। मुझे देखकर बोले-कहाँ घूम रहे हो ? पढने के वक तुम्हें घूमने की सूझती है ? मैंने कहा-गया था चौपाल। रामचन्द्र विदा हो रहे थे। उन्हें चौधरी साहब ने कुछ नहीं दिया। 'तो तुम्हें इसकी क्या फिक पड़ी है?' 'वह जायेंगे कैसे ? पास राह-खर्च भी तो नहीं है ।' 'क्या कुछ खर्च भी नहीं दिया ? यह चौधरी साहब की बेइसाफी है।' 'आप अगर दो रुपया दे दें, तो मैं उन्हे दे आऊँ । इतने में शायद वह घर पहुँच जायँ ।' पिताजी ने तीव्र दृष्टि से देखकर कहा-जाओ, अपनी किताव देखो। मेरे पास रुपये नहीं हैं। यह कहकर वह घोड़े पर सवार हो गये। उसी दिन से पिताजी पर से मेरी श्रद्धा उठ गई। मैंने फिर कभी उनकी डाट-डपट की परवा नहीं की। मेरा दिल कहता-~-आपको मुझे उपदेश देने का कोई अधिकार नहीं है। मुझे उनकी सूरत से चिढ़ हो गई। वह जो कहते, मैं ठीक उसका उल्टा करता। यद्यपि इससे मेरो हो - ra A.
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