पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/३९

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रामलीला OS O आबादो० -अच्छा ! तो क्या आप समझते थे कि अपनी उज़रत' छोड़ दूंगी ? वाह री आपको समझ ! खूब, क्यों न हो। दीवाना--चकारे ख्वेश हुशियार । चौधरी-तो क्या तुमने दोहरी फीस लेने की ठानी है ? आवादी -अगर आपको सौ दफे गरज हो, तो! वरना मेरे सौ रुपये तो कहीं गये ही नहीं। मुझे क्या कुत्ते ने काटा है, जो लोगों की जेब में हाथ डालती फिरूं ? चौधरी की एक न चली। आवादी के सामने दवना पड़ा। नाच शुरू हुआ। आवादीजान बला को शोख औरत थी। एक तो.कमसिन, उस पर हसीन । और, उसकी अदाएँ तो इस गजब की थीं कि मेरी तबीयत भी मस्त हुई जाती थी। आदमियों को पहचानने का गुण भी उसमें कुछ कम न था। जिसके सामने बैठ गई, उससे कुछ-न-कुछ ले ही लिया। पांच रुपये से कम तो शायद ही किसी ने दिये हो। पिताजी के सामने भी वह जा बैठी। मैं मारे शर्म के गड़ गया। जब उसने उनकी कलाई पकड़ी, तब तो मैं सहम उठा । मुझे यकीन था कि पिताजी उसका हाथ झटक देंगे। और शायद दुत्कार भी दें, किन्तु यह क्या हो रहा है। ईश्वर ! मेरी आंखें वोका तो नहीं खा रही हैं ! पिताजी सूछों में हँस रहे हैं। ऐसी मृदु-हँसी उनके चेहरे पर मैने कभी नहीं देखी थी। उनकी आँखों से अनुराग टपका पता था ! उनका एक-एक रोम पुलकित हो रहा था, मगर ईश्वर ने मेरी लाज रख ली। वह देखो, उन्होंने वीरे से आवादी के कोमल हाथों से अपनी कलाई छुन ली। अरे ! यह फिर क्या हुआ ? आवादी तो उनके गले में बाँहें डाले देती है। अब की पिताजी जरूर उसे पौटेंगे। चुडैल को ज़रा भी शर्म नहीं। एक महाशय ने मुसकिराकर कहा-यहाँ तुम्हारी दाल न गलेगी, आवादीजान ! और दरवाजा देखो। वात तो इन महाशय ने मेरे मन को कही, और बहुत ही उचित कही, लेकिन न-जाने क्यों पिताजी ने उनकी ओर कुपित-नेत्रों से देखा, और मूंछों पर ताव दिया। मुंह से तो वह कुछ न गेले, पर उनके मुख को आकृति चिल्लाकर सरोष शब्दो में कह रही थी-तू वनिया, मुझे समझता क्या है ? यहाँ ऐसे अवसर पर तक निमार करने को तैयार है । रुपये की हकीकत ही क्या ! तेरा जी चाहे आज़मा ले। तुमसे दूनी रकम न दे डालूं, तो मुंह न दिसाऊँ ! महान् आश्चर्य ।