इस्तीफ़ा (१) दफ्तर का बाबू एक बेज़बान जीव है। मजकूर को आँखें दिखाओ, तो यह त्योरियां बदलकर खड़ा हो जायगा । कुली को एक डॉट तो सिर से बोम फेंककर अपनी राह लेगा। किसी भिखारी को दुतकारो, तो वह तुम्हारी ओर गुस्से की निगाह से देखकर चला जायगा । यहाँ तक कि गधा भी कभी-कभी तकलीफ पाकर दो-लत्तियाँ झाड़ने लगता है ; मगर बेचारे दफ्तर के बावू को आप गहे आँखें । दिखायें, डॉट बताये, दुतकार या ठोकरें मारें, उसके माथे पर बल न आयेगा । उसे अपने विचारों पर जो आधिपत्य होता है, वह शायद किसी सयमी साधु में भी न हो । सन्तोष का पुतला, सब की मूर्ति, सच्चा आज्ञाकारी, गरज़ उसमें तमाम मानवी अच्छाइयाँ मौजूद होती हैं। खंडहर के भी एक दिन भाग्य जगते हैं। दीवाली के दिन उस पर भी रोगनी होती है, बरसात में उस पर हरियाली छाती है, प्रकृति की दिलचस्पियों में उसका भी हिस्सा है। मगर इस गरीब बाबू के नसीव कभी नहीं जागते । इसकी अँधेरी तकदीर में रोशनी का जलवा कभी दिखाई नहीं देता। इसके पीले चेहरे पर कभी मुसकराहट की रोशनी नजर नहीं आती। इसके लिए सूखा- सावन है । कभी हरा भादौ नहीं । लाला फतहवन्द ऐसे ही एक बेज़बान जीव थे। कहते हैं, मनुष्य पर उसके नाम का भी कुछ असर पड़ता है। फतहचन्द की दशा में यह बात यथार्थ सिद्ध न हो सकी। यदि उन्हें 'हारचन्द' कहा जाय, तो कदाचित् यह अत्युक्ति न होगी। दफ्तर में हार, जिन्दगी में हार; मित्रों में हार, जीवन में उनके लिए चारों ओर हार और निराशाएँ ही थीं। लड़का एक भी नहीं, लड़कियाँ तीन, भाई एक भी नहीं, भौजाइयाँ दो, गाँठ में कौड़ी नहीं, मगर दिल में दया और मुरव्वत, सच्चा मित्र एक भी नहीं जिससे मित्रता हुई उसने धोखा दिया, इस पर तन्दुरुस्ती अच्छी नहीं-बत्तीस साल की अवस्था में बाल खिचड़ी हो
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