पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/३०४

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३०० मानसरोवर । . गरमी के दिन थे। दोपहर को सारा घर सो रहा था ; पर जगत की आँखों में नींद न थी। आज उसकी बुरी तरह कुन्दी होगी। इसमें सन्देह न था। उसका घर पर रहना ठीक नहीं, दस-पाँच दिन के लिए उसे कहीं खिसक जाना चाहिए । तब तक लोगों का क्रोध शान्त हो जायगा। लेकिन कहीं दूर गये विना काम न चलेगा। बस्ती में वह कई दिन तक अज्ञातवास नहीं कर सकता। कोई-न-कोई ज़रूर हो उसका पता दे देगा और वह पकड़ लिया जायगा। दूर जाने के लिए कुछ न कुछ खर्च तो पास होना चाहिए। क्यों न वह लिफाफे में से एक नोट निकाल ले। यह तो मालूम हो हो जायगा कि उसीने लिफाफा फाड़ा है, फिर एक नोट निकाल लेने में क्या हानि है। दादा के पास रुपये तो हैं ही, झक मारकर दे देंगे। यह सोचकर उसने दस रुपये का एक नोट उड़ा लिया ; मगर उसी वक्त उसके मन में एक नयी 'कल्पना का प्रादुर्भाव हुआ। अगर ये सब रुपये लेकर किसी दूसरे शहर में कोई दूकान खोल ले, तो बड़ा मजा हो। फिर एक-एक पैसे के लिए उसे क्यों किसीकी चोरी करनी पड़े। कुछ दिनों में वह बहुत सा रुपया जमा करके घर आयेगा, तो लोग कितने चकित हो जायेंगे! उसने लिफाफे को-फिर निकाला। उसमें कुल २००) के नोट थे। दो सौ में दूब की दूकान खूब चल सकती है । आखिर मुरारी को दूकान में दो-चार कढाव और दो-चार पीतल के थालों के सिवा और क्या है ? लेकिन कितने ठाट से रहता है ! रुपयों की चरस उड़ा देता है । एक-एक दाँव पर दस दस रुपये रख देता है । - नफा न होता, तो यह ठाट कहाँ से निभाता। इस आनन्द कल्पना में, वह इतना मग्न हुआ कि उसका मन उसके काबू से बाहर हो गया, जैसे प्रवाह में किसीके पांव उखड़ जाय और वह लहरों में वह जाय । उसी दिन शाम को वह बम्बई चल दिया। दूसरे ही दिन मु शी भक्तसिंह पर ग्रबन का मुकदमा दायर हो गया। (२) बम्बई के किले के मैदान में बैंड बज रहा था और राजपूत रेजिमेंट के सजीले सुन्दर जवान कवायद कर रहे थे। जिस प्रकार हवा वादलों को नये-नये रूप में बनाती और बिगाड़ती है, उसी भांति सेना का नायक सैनिकों को नये-नये रूप में बना और विगाड़ रहा था ।