२८६ मानसरोवर 1 इसके एक सप्ताह बाद सुवोधचन्द्र गाड़ी से उतरे तब स्टेशन पर दफ्तर के सव कर्मचारियों को हाज़िर पाया। सव उनका स्वागत करने आये थे। मदारीलाल को देखते ही सुबोध लपककर उनके गले से लपट गये और बोले -तुम खूब मिले भाई ! यहाँ कैसे आये ? ओह ! आज एक युग के बाद भेंट हुई ! मदारीलाल वोले - यहाँ ज़िलाबोर्ड के दफ्तर में हेड क्लार्क हूँ। आप तो कुशल से हैं? सुवोध-अजो, मेरो न पूछो। बसरा, फ्रांस, मिस्र और न जाने कहाँ-कहां मारा- मारा फिरा । तुम दफ्तर में हो, यह बहुत ही अच्छा हुआ। मेरी तो समझ ही में न आता था कि कैसे काम चलेगा। मैं तो बिलकुल कोरा हूँ; मगर जहाँ जाता हूँ, मेरा सौभाग्य भी मेरे साथ जाता है। बसरे में सभी अफसर खुश थे। फ्रास में भी खूब चैन किये । दो साल में कोई पच्चीस हजार रुपये बना लाया और सब उड़ा दिया। वहाँ से आकर कुछ दिनों कोआपरेशन के दफ्तर में मटरगश्त करता रहा । यहाँ आया तव तुम मिल गये । (क्लार्को को देखकर ) ये लोग कौन हैं ? मदारी के हृदय पर बछिया-सी चल रही थीं। दुष्ट पच्चीस हज़ार रुपये वसरे से कमा लाया । यहाँ कलम घिसते-घिसते मर गये ओर पांच सौ भी न जमा कर सके । बोले- ये लोग बोर्ड के कर्मचारी हैं । सलाम करने आये है। सुवोध ने उन सब लोगों से बारी-बारी से हाथ मिलाया और बोला-आप लोगों ने व्यर्थ यह कष्ट किया। बहुत आभारी हूँ। मुझे आशा है कि आप सब सज्जनों को मुझसे कोई शिकायत न होगी । मुझे अपना अफसर नहीं, अपना भाई समझिए । आप सब लोग मिलकर इस तरह कास कीजिए कि बोर्ड की नेकनासी हो और मैं भी सुर्खरू रहूं। आपके हेड क्लार्क साहब तो मेरे पुराने मित्र और लङ्गोटिया यार हैं। एक वाक्चतुर क्लार्क ने कहा -हम सब हुजूर के ताबेदार हैं। यधाशक्ति आप को असन्तुष्ट न करेंगे, लेकिन आदमी हो हैं, अगर कोई भूल हो जाय तो उसे क्षमा करेंगे। सुवोध ने नम्रता से कहा-यही मेरा सिद्धान्त है। हमेशा यही सिद्धान्त रहा। जहां रहा, मातहतों से मित्रो का-सा वरताव किया। हम और आप दोनों हो किसी
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