निमन्त्रण २५ O चिन्ता -तो तुम धीरे-धीरे आओ'न, दौड़ने को कौन कहता है। - मोटे० -ज़रा रुक जाओ, मेरे पैर में काँटा गड़ गया है।' चिन्ता० - तो निकाल लो, 'तब तक मैं चलता हूँ। मोटे मैं न कहता, तो रानी तुम्हें पूछती भी न ! मोटेराम ने बहुत बहाने किये , पर चिन्तामणि ने एक न सुना ।' भवन में पहुँचे। रानी साहब बैठी कुछ लिख रही थीं और रह-रहकर द्वार की ओर ताक लेती थीं कि सहसा पण्डित चिन्तामणि उनके सामने आ खड़े हुए और यों स्तुति -- करने लो- > 3 1 'हे हे यशोदे तू बालकेशव, मुरारनामा'..' रानी-क्या मतलब है ! अपना मतलब कहो ? . चिन्ता-सरकार को आशीर्वाद देता हूँ। सरकार ने इस दास चिन्तामणि को निमन्त्रित करके जितना अनुग्रसित ( अनुगृहीत ) किया है, उसका बखान शेपनांग अपनी सहस्र जिभ्याद्वारा भी नहीं कर सकते। रानी-तुम्हारा ही नाम चिन्तामणि है !" वे कहाँ रह गये पण्डित' मोटे- राम शास्त्री चिन्ता० -पीछे आ रहा है, सरकार, मेरे बरावर आ सकता है, भला! मेरा तो शिष्य है। रानी -अच्छा, तो वे आपके शिष्य हैं। चिन्ता-मैं अपने मुँह से अपनी वड़ाई नहीं करना चाहता, सरकार ! विद्वानों को नम्र होना चाहिए , पर जो यथार्थ है, वह तो ससार जानता है । सरकार, मैं किसी से वाद-विवाद नहीं करता , यह मेरा अनुशीलन ('अभीष्ट ) नहीं। मेरे शिष्य भी वहुधा मेरे गुरु बन जाते हैं , पर मैं किसी से कुछ नहीं कहता । जो सत्य है, वह सभी जानते हैं। इतने मे पण्डित मोटेराम भी गिरते-पड़ते हॉफते हुए आ पहुँचे और यह देख- कर कि चिन्तामणि भद्रता और सभ्यता की मूर्ति बने खड़े हैं, वे देवोपम शान्ति के साथ खड़े हो गये। रानी-पण्डित चिन्तामणि बड़े साधु-प्रकृति विद्वान् हैं। आप उनके शिष्य हैं, फिर भी वे आपको अपना शिष्य नहीं कहते । 1
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