प्रायश्चित्त । (१) दफ्तर में ज़रा देर से आना अफसरों की शान है। जितना ही बड़ा अधिकारी होता है, उतनी ही देर में आता है। और उतने ही सवेरे जाता है। चपरासी की हाज़िरी चौबीसों घटे की। वह छुट्टी भी नहीं जा सकता। अपना एवज़ देना पड़ता है। खैर, जब वरेली ज़िला-बोर्ड के हेडक्लार्क वाबू मदारीलाल ग्यारह बजे दपतर आये, तब मानो दफ्तर नींद से जाग उठा। चपरासी ने दौड़कर पैरगाढ़ी ली, अरदलो ने दौड़कर कमरे की चिक उठा दी और जमादार ने डाक की किश्ती मेज़ पर लाकर रख दी। मदारीलाल ने पहला ही सरकारी लिफाफा खोला था कि उनका रग फक्न हो गया । वे कई मिनट तक सकते की हालत में खड़े रहे, मानो सारी ज्ञानेन्द्रियाँ शिथिल हो गई हों। उन पर बड़े आघात हो चुके थे , पर इतने बदहवास वे कभी न हुए थे । धात यह थी कि बोर्ड के सेक्रेटरी को जो जगह एक महीने से खाली थो, सरकार ने सुवोधचन्द्र को यह जगह दी थी और सुबोवचन्द्र वह व्यक्ति था, जिसके नाम ही से मदारीलाल को घृणा थी। वह सुबोधचन्द्र, जो उनका सहपाठी था, जिसे ज़क देने को उन्होंने कितनी ही वार चेष्टा की और कभी सफल न हुए थे। वही सुवोध आज उनका अफमर होकर आ रहा था । सुबोध की इधर कई सालों से कोई खबर न थी। इतना मालूम था कि वह फौज में भरती हो गया था। मदारीलाल ने समझा था- वहीं मर गया होगा ; पर आज वह मानो जी उठा और सेक्रेटरी होकर आ रहा था। मदारीलाल को उसकी मातहती में काम करना पड़ेगा। इस अपमान से तो मर जाना कहीं अच्छा था। सुबोध को स्कूल और कालेज की सारी वात अवश्य हो याद होंगी। मदारीलाल ने उसे कालेज से निकलवा देने के लिए कई बार मत्र चलाये, झूठे आरोप किये, वदनाम किया। क्या सुवोध सब कुछ भूल गया होगा ? नहीं, कभी नहीं। वह आते-ही-आते पुरानी कसर निकालेगा। मदारी बाबू को अपनी प्राण-रक्षा का कोई उपाय न सूझता था।
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