२८२ मानसरोवर 7 - मुझे भी दिखा दीजिए। भगवान् चडा कारसाज़ है, मुरदे को भी जिला सकता है। कौन जाने, अव भी उसे दया आ जाय । चड्ढा ने व्यथित स्वर से कहा-चलो, देख लो, मगर तीन-चार घण्टे हो गये। जो कुछ होना था, हो चुका । वहुतेरे माड़ने-फू कनेवाले देख-देखकर चले गये। डाक्टर साहब को आशा तो क्या होती, हो, वूडे पर दया आ गई; अन्दर ले गये। भगत ने लाश को एक मिनट तक देखा। तब मुसकिराकर बोला-~अभी कुछ नहीं विगढ़ा है बाबूजी । वाह ! नारायन चाहेगे, तो आध घण्टे में भैया उठ बैठेंगे। आप नाहक दिल छोटा कर रहे हैं। जरा कहारों से कहिए, पानी तो भरें । क्हारो ने पानी भर-भरकर केलास को नहलाना शुरू किया । पाइप बन्द हो गया था। कहारों की संख्या अधिक न थी। इसलिए मेहमानों ने अहाते के बाहर के कुएँ से पानी भर-भरकर कहारों को दिया । मृणालिनी कलसा लिये पानी ला रही थी। बूढा भगत खड़ा मुसकिरा-मुसकिराकर मत्र पढ़ रहा था, मानो विजय उसके सामने खड़ी है। जब एक बार मत्र समाप्त हो जाता, तब वह एक जड़ी केलास को सुधा देता। इस तरह न जाने कितने घडे कैलास के सिर पर डाले गये और न जाने कितनी बार भगत ने मत्र फू का। आखिर जब उषा ने अपनी लाल-लाल आँखें खोली, तो कैलास की लाल-लाल आँखें भी खुल गई 1 एक क्षण में उसने अंगड़ाई ली और पानी पीने को माँगा । डाक्टर चड्ढा ने दौड़कर नारायणी को गले लगा लिया, नारायणी दौड़कर भगत पैरों के पर गिर पड़ी और मृणालिनी कैलास के सामने आँखों में आँसू भरे पूछने लगी -अब कैसी तबीयत है ? एक क्षण मे चारों तरफ खबर फैल गई। मित्रगण मुबारकबाद देने आने लगे। डाक्टर साहब बड़े श्रद्धा-भाव से हर एक के सामने भगत का यश गाते फिरते थे। सभी लोग भगत के दर्शनो के लिए उत्सुक हो उठे, मगर अन्दर जाकर देखा, तो भगत का कहीं पता न था। नौकरो ने कहा-अभी तो यहाँ वैठे चिलम पो रहे थे। हम लोग तमाखू देने लगे, तो नहीं ली, अपने पास से तमाखू निकाल कर भरी। यहाँ तो भगत को चारो ओर तलाश होने लगो, और भगत लपका हुआ घर चला जा रहा था कि बुढिया के उठने से पहले घर पहुँच जाऊँ। जब मेहमान लोग चले गये, तो डाक्टर साहब ने नारायणी से कहा -बुर न-जाने कहां चला गया। एक चिलम तमाखु का भी रवादार न हुआ। -
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