२७६ मानसरोवर . आध घण्टे तक यही हाल रहा । कैलास की दशा प्रतिक्षण बिगड़ती जाती थी। यहाँ तक कि उसकी आंखें पथरा गई, हाथ-पाँव ठंढे हो गये, मुख की कान्ति मलिन । पड़ गई, नाड़ी का कहीं पता नहीं। मौत के सारे लक्षण दिखाई देने लगे । घर में कुहराम मच गया। मृणालिनी एक ओर सिर पीटने लगी , माँ अलग पछाड़ें खाने 'लगी। डाक्टर चड्ढा को मित्रों ने पकड़ लिया, नहीं तो वह नस्तर अपनी गरदन पर मार लेते। एक महाशय बोले-कोई मत्र झाड़नेवाला मिले, तो सम्भव है, अब भी जान वच जाय। एक मुसलमान सज्जन ने इसका समर्थन किया- अरे साहब, कन में पड़ी हुई लाशें ज़िन्दा हो गई हैं । ऐसे-ऐसे बाकमाल पड़े हुए हैं। डाक्टर चड्ढा बोले-मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गया था कि इसकी बातों में आ गया । नस्तर लगा देता, तो यह नौवत ही क्यों आती। बार-बार समझाता रहा कि बेटा, साँप न पालो, मगर कौन सुनता था । वुलाइए, किसो झाड़-फूक करनेवाले ही को बुलाइए । मेरा सब कुछ ले ले, मैं अपनी सारी जायदाद उसके पैरों पर रख - दूंगा । लँगोटी बाँधकर घर से निकल जाऊँगा, मगर मेरा कैलास, मेरा प्यारा कैलास उठ वैठे । ईश्वर के लिए किसीको बुलाइए। एक महाशय का किसी झाड़नेवाले से परिचय था। वह दौड़कर उसे बुला लाये; मगर कैलास की सूरत देखकर उसे मत्र चलाने की हिम्मत न पड़ी। बोला --अब क्या हो सकता है सरकार', जो कुछ होना था, हो चुका । अरे मूर्ख, यह क्यों नहीं कहता कि जो कुछ न होना था, हो चुका । जो कुछ होना था, वह कहाँ हुआ ? माँ-बाप ने बेटे का सेहरा कहाँ देखा ?' मृणालिनी का कामना-तरु क्या पल्लव और पुष्प से रजित हो उठा 2 मन के वह स्वर्ण-स्वप्न, जिनसे जीवन आनन्द का स्रोत बना हुआ था, क्या वह पूरे हो गये १ जीवन के नृत्यमय, तारिका-मण्डित सागर मे आमोद की बहार लूटते हुए क्या उनकी नौका जलमग्न नहीं हो गई ? जो न होना था, वह हो गया ! वही हरा-भरा मैदान था, वही सुनहरी चांदनी एक निशब्द संगीत की भांति प्रकृति पर छाई हुई थी, वही मित्र-समाज था। वही मनोरंजन के सामान थे। मगर जहाँ हास्य की ध्वनि थी, वहाँ अब करुण-क्रन्दन और अश्रु-प्रवाह था । "
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