मानसरोवर 0 0 O 1 चिन्ता -तब क्यों न ले गये ? जब इतनी दुर्दशा कर लिये, तब आये । अभी तक पीठ में दर्द हो रहा है। मोटे०-अजी, वह तर माल खिलाऊँगा कि सारा दर्द-वर्द भाग जायगा। तुम्हारे यजमानों को भी ऐसे पदार्य मयस्सर न हुए होंगे। आज तुम्हें वदकर पछाड़े गा।" चिन्ता -तुम बेचार मुझे क्या पछाड़ोगे। सारे शहर मे तो कोई ऐसा माई का लाल दिखाई नहीं देता । हमें शनीचर का इष्ट है । मोटे०-अजी, यहाँ बरसों तपस्या की है । भडारे का भडारा साफ कर दें और इच्छा ज्यों-की-त्यों बनी रहे। बस, यही समझ लो कि भोजन करके हम खड़े नहीं हो सकते । चलना तो दूसरी बात है । गाड़ी पर लदकर आते हैं । चिन्ता तो यह कौन बड़ी बात है। यहाँ तो टिकठी पर उठाकर लाये जाते हैं । ऐसी-ऐसी डकारें लेते हैं कि जान पड़ता है, वम-गोला छूट रहा है। एक बार खोपिया पुलिस ने बम-गोले के सन्देह मे घर की तलाशी तक ली थी। मोटे०-झूठ बोलते हो। कोई इस तरह नहीं डकार सकता। चिन्ता०—अच्छा, तो आकर सुन लेना । डरकर भाग न जाओ, तो सही। एक क्षण में दोनों मित्र मोटर पर बैठे और मोटर चली। (८) रास्ते मे पण्डित चिन्तामणि को शका हुई कि कहीं ऐसा न हो कि मैं पण्डित मोटेराम का पिछलग्गू समझा जाऊँ और मेरा यथेष्ट सम्मान न हो। उधर पण्डित मोटेराम को भी भय हुआ कि कहीं ये महाशय मेरे प्रतिद्वन्द्वी न बन जाय और रानी साहब पर अपना रग जमा लें। -दोनों अपने-अपने मसूवे वाँ वने लगे। ज्योंही मोटर रानी के भवन में पहुंची, दोनो महाशय उतरे । अन्न मोटेराम चाहते थे कि पहले मैं रानी के पास पहुँच जाऊँ और कह दूं कि पण्डित को ले आया, और चिन्तामणि चाहते थे कि पहले मैं रानी के सम्मुख जा पहुँचूँ और अपना रङ्ग जमा दूँ। दोनों कदम वढाने लगे। चिन्ता- मणि हल्के होने के कारण जरा आगे बढ़ गये, तो पण्डित मोटेराम दौड़ने लगे। चिन्तामणि भी दौड़ पड़े। घुड़दौड़-सी होने लगी। मालूम होता था कि दो गैंड़े भागे जा रहे हैं । अन्त को मोटेराम ने हांफते हुए कहा-राजसभा में दौड़ते हुए जाना उचित नहीं।
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