२६६ मानसरोवर . आपका आगमन कैसे अत्यन्त कोमल वचनों से कारुणिक शब्दों में बोले-माता, कहाँ से आना हुआ और जब यह उत्तर मिला कि वह अयोध्या से आई है, तो आपने उसे फिर से दण्डवत् किया और चीनी तथा मिश्रो से भी अधिक मधुर औन नवनीत से भी अधिक चिकने शब्दों में कहा- -अच्छा, आप श्रीअयोध्याजी से आ रही हैं। उस नगरी का क्या कहना ? देवताओ की पुरी है। बड़े भाग्य थे कि आपके दर्शन हुए। यहाँ हुआ ? स्त्री ने उत्तर दिया-घर तो मेरा यहीं है। सेठजी का मुख पुन. मधुरता का चित्र बना । वे बोले-अच्छा, तो सकान आपका इसी शहर है ! तो आपने माया-जजाल को त्याग दिया ? यह तो मैं पहले ही समझ गया था। ऐसी पवित्र आत्माएँ ससार में बहुत थोड़ी हैं। ऐसी देवियों के दर्शन दुर्लभ होते . हैं। आपने मुझे दर्शन दिया, बड़ी कृपा की। मैं इस योग्य नहीं, जो आप-जैसी विदुषियों की कुछ सेवा कर सकूँ; किन्तु जो काम मेरे योग्य हो~-जो कुछ मेरे किये हो सकता हो-उसके करने के लिए मैं सव भांति से तैयार है। यहाँ सेठ साहूकारों ने मुझे वहुत बदनाम कर रखा है, मैं सबकी आँखों में खटकता हूँ।. उसका कारण सिवा इसके और कुछ नहीं कि जहाँ वे लोग लाभ पर ध्यान रखते हैं, वहाँ मैं भलाई पर ध्यान रखता हूँ। यदि कोई बड़ी अवस्था का वृद्ध मनुष्य मुझसे कुछ कहने-सुनने के लिए आता है, तो विश्वास मानो, मुझसे उसका वचन टाला नहीं जाता। कुछ वुढापे का विचार ; कुछ उसके दिल टूट जाने का डर , कुछ यह ख्याल कि कहीं यह विश्वासघातियों के फन्दे मे न फँस जाय मुझे उसकी इच्छाओं की पूर्ति के लिए विवश कर देता है। मेरा यह सिद्धान्त है कि अच्छी जायदाद और कम व्याज । किन्तु इस प्रकार की बातें आपके सामने करना व्यर्थ है । आपसे तो घर का मामला है । मेरे योग्य जो कुछ काम हो, उसके लिए मैं सिर-आँखों से तैयार हूँ । वृद्ध स्त्री-मेरा काम आप ही से हो सकता है। सेटजी-(प्रसन्न होकर ) बहुत अच्छा-आज्ञा दो। स्त्री-मैं आपके सामने भिखारिनी वनकर आई हूँ। आपको छोड़कर कोई मेरा सवाल पूरा नहीं कर सकता। सेठजी-कहिए, कहिए । स्त्री -आप राम-रक्षा को छोड़ दीजिए। सेठजी के मुख का रङ्ग उतर गया। सारे हवाई किले जो अभी-अभी तैयार हुए ..
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