२५८ मानसरोवर मां का दिल ऐसा टूटा कि वह दिल्ली छोड़कर अयोध्या जा रही। तबसे वहीं रहती , है । वाबू साहब कभी-कभी मिसेज रामरक्षा से छिपकर उससे मिलने अयोध्या जाया करते थे, किन्तु वह दिल्ली आने का कभी नाम न लेती। हां, यदि कुशल-क्षेम की चिट्ठी पहुंचने में कुछ देर हो जाती, तो विवश होकर समाचार पूछ लेती थी। (२) उसी महल्ले में एक सेठ गिरधारीलाल रहते थे। उनका लाखों का लेन-देन था। वे हीरे और रत्नों का व्यापार करते थे। बोवू रामरक्षा के दूर के नाते में साढ़ होते थे। पुराने ढग के आदमी थे-प्रात काल यमुना स्नान करनेवाले तथा गाय को अपने हाथों से झाड़ने-पोछनेवाले। उनसे मिस्टर रामरक्षा का स्वभाव न मिलता था, परन्तु जब कभी रुपयों की आवश्यकता होती, तो वे सेठ गिरधारीलाल के यहां से बेखटके मँगा लिया करते। आपस का मामला था, केवल चार अंगुल के पत्र पर रुपया मिल जाता था, न कोई दस्तावेज़, न स्टाम्प, न साक्षियों की आवश्यकता । मोटरकार के लिए दस हजार की आवश्यकता हुई, वह वहां से आया। घुड़दौड़ के लिए एक आस्ट्रेलियन घोड़ा डेढ हजार मे लिया। उसके लिए भी रुपया सेठजी के यहाँ से आया। धीरे-धीरे कोई बीस हजार का मामला हो गया। सेठजी सरल हृदय के आदमी थे। समझते थे कि उसके पास दूकानें हैं। बैंकों मे रुपया है। जब जी चाहेगा, रुपया वसूल कर लेंगे, किन्तु जब दो-तीन वर्ष व्यतीत हो गये और सेठजी के तकाजों की अपेक्षा मिस्टर रामरक्षा की मांग ही का आधिक्य रहा, तो गिरधारीलाल को सन्देह हुआ। वह एक दिन रामरक्षा के मकान पर आये और सभ्य-भाव से बोले- भाई साहब, मुझे एक हुण्डी का रुपया देना है, यदि आप मेरा हिसाव कर दें तो बहुत अच्छा दो। यह कहकर हिसाव के कागजात और उनके पत्र दिखलाये। मिस्टर राम- रक्षा किसी गार्डनपार्टी में सम्मिलित होने के लिए तैयार थे। बोले- इस समय क्षमा कीजिए., फिर देख लूँगा, जल्दी क्या है ? । गिरधारीलाल को वावू साहव की रुखाई पर क्रोध आ गया, वे रुष्ट होकर बोले- आपको जल्दी नहीं है, मुझे तो है ! दो सौ रुपये मासिक की मेरी हानि हो रही है। मिस्टर रामरक्षा ने असन्तोष प्रकट करते हुए घड़ी देखी। पार्टी का समय बहुत करीब
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