ईश्वरीय न्याय पैसा है, चाल बच्चे है और क्या चाहिए ? मेरा कहना मानो, इस क्लक का टीका अपने माये न लगाओ। यह अपजस मत लो। बरक्त अपनी कमाई मे होती है, हराम की कौड़ी कभी नहीं फलती । मु शो-कॅह ! ऐसी बातें बहुत सुन चुका है। दुनिया उनपर चलने लगे, तो मारे काम वन्द हो जायें । मैंने इतने दिनों इनको सेवा की, मेरी ही बदौलत ऐसे-ऐसे चार-पांच गाव वढ गये, जब तक पण्डितजी थे, मेरी नीयत का मान था । मुझे आँख में धूल टालने की जरूरत न थी, वे आप ही मेरी खातिर कर दिया करते थे। उन्हें मरे आठ साल हो गये , मगर मुसम्मात के एक बोड़े पान की कसम खाता हूँ, मेरी जात से उनकी हजारों रुपये मासिक की वचत होती थी। क्या उनको इतनी भी समझ न थी कि यह बेचारा जो इतनी ईमानदारी से मेरा काम करता है, इस नफे में कुछ उसे भी मिलना चाहिए ? हक कहकर न दो, इनाम कहकर दो, किसी तरह दो तो, मगर वे तो समझती थीं कि मैंने इसे वीस रुपये महीने पर मोल ले लिया है। मैंने आठ साल तक सब किया, अब क्या इसी बीस रुपये मे गुलामी करता रहूँ और अपने बच्चो को दूसरो का मुंह ताकने के लिए छोड़ जाऊँ ? अव मुझे यह अवसर मिला है। इसे क्यों छोडूं ? ज़मींदार की लालसा लिये हुए क्यों मरूँ ? जब तक जोऊँगा, सुद खाऊँगा । मेरे पीछे मेरे बच्चे चैन उढ़ायेंगे। माता की आँखों में आंसू भर आये। बोली-बेटा, मैंने तुम्हारे मुँह से ऐसी बातें कभी न सुनी थीं, तुम्हें क्या हो गया है ? तुम्हारे आगे वाल-बच्चे हैं। आग मे हाथ न डालो। वह ने सास की ओर देखकर कहा-हमको ऐसा धन न चाहिए, हम अपनी दाल-रोटी में मगन हैं। मुशी-अच्छी बात है, तुम लोग रोटी-दाल खाना, गजी-गाढ़ा पहनना, मुझे अव हलुए-पूरी की इच्छा है। माता-यह अधर्म मुझसे न देखा जायगा । मैं गगा में डूब मरूँगी। पत्नी-तुम्हें यह सब काँटा बोना है, तो मुझे मायके पहुंचा दो । मैं अपने बच्चों को लेकर इस घर में न रहूँगी ! मु शी ने झुमलाकर कहा--तुम लोगों की बुद्धि तो भाग खा गई है। लाखों सरकारी नौकर रात-दिन दूसरों का गला दवा दबाकर रिश्वतें लेते हैं और चैन करते
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