ईश्वरीय न्याय 1 २३५ - मैं जीते-जी आपको सेवा से मुंह न मोडूंगा। आप केवल इतना कीजिएगा कि मैं जिस किसी की शिकायत करूँ, उसे डॉट दीजिएगा, नहीं तो ये लोग सिर चढ़ जायंगे। ( २ ) इस घटना के बाद कई वर्षों तक मुंशीजो ने रियासत को सँभाला। वह अपने काम में बड़े कुशल थे। कभी एक कौड़ी का वल नहीं पड़ा। सारे जिले में उनका सम्मान होने लगा। लोग पण्डितजो को भूल सा गये । दरवारों और कमेटियों में वे सम्मि- लित होते, जिले के अधिकारी उन्हीं को ज़मींदार समझते। अन्य रईसों में भी उनका आदर था, पर मान-वृद्धि महँगी वस्तु है और भानुकुवरि, अन्य त्रियों के सदृश पैसे को खूब पकड़ती थी। वह मनुष्य की मनोवृत्तियों से परिचित न थी। पण्डितजी हमेशा लालाजो को इनाम-इकराम देते रहते थे। वे जानते थे कि ज्ञान के वाद ईमान का दूसरा स्तम्भ अपनी सुदशा हैं। इसके सिवा वे खुद कभी कागजों की जांच कर लिया करते थे। नाममात्र ही की सही, पर इस निगरानी का डर जरूर बना रहता था। क्योंकि ईमान का सबसे बड़ा शत्रु उवसर है। भानुकुँवरि इन बातों के जनता न थी। अतएव अवसर तथा धनाभाव-जैसे प्रबल शत्रुओं के पने में पर रोजी का ईमान कैसे वेदाग बचता ! कानपुर शहर से मिला हुआ, ठोक गगा के किनारे, एक बहुत कट और उस- जाऊ गाँव था। पण्डितजी इस गांव को लेकर नदी के किनारे पर, मन्दिर, वाग, मकान आदि बनवाना चाहते थे, पर उनकी यह कामना सयोग से अव यह गाँव विकने लगा। उनके ज़मींदार एक ठान लिली छौजदारी के मामले में फंसे हुए थे। मुकदमा लड़ने के लिए नये . नुनीजी ने कच, हरी मे यह समाचार सुना । चटपट मोल-तोल हुन थी। सौदा पटने में देर न लगी, वैनामा लिखा गया। रजिस्ट्री हुई। जद न थे, पर शहर में साख थी। एक महाजन के यहां से तीस दृश्क और ठाकुर साहब के नज़र किये गये। हाँ, काम-काज की मार लव्ह सब लिखा-पढ़ी मुश ने अपने ही नाम की, क्योंकि मालिश नालिय थे। उन लेने में बहुत झमट होती और विन्द्र से निकल जाना, बैनामा लिये असीम आनन्द में मन ना निकै कम आय ! पर्दा कम ,
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