ऐक्ट्रेस २२९ 1 मेरे लिए यह मनोरजन का विषय नहीं, ज़िन्दगी और मौत का सवाल है। हां, तुम इसे विनोद समझ सकती हो , मगर कोई परवा नहीं । तुम्हारे मनोरजन के लिए यदि मेरे प्राण भी निकल जाय, तो मैं अपना जीवन सफल समझेगा। दोनों तरफ से इस प्रीति को निभाने के वादे हुए, फिर दोनों ने नाश्ता किया और कल भोज का न्योता देकर कुँवर साहब बिदा हुए। ( ४ ) एक महीना गुज़र गया, कुँवर साहव दिन में कई-कई बार आते। उन्हें एक क्षण का वियोग भी असह्य था। कभी दोनों वजरे पर दरिया की सैर करते, कभी हरी-हरी घास पर पाकों में बैठे बातें करते, कभी गाना-वजाना होता, नित्य नये प्रोग्राम वनते थे। सारे शहर में मशहूर था कि ताराबाई ने कुँवर साहब को फाँस लिया और दोनों हाथों से सम्पत्ति लूट रही है। पर तारा के लिए कुँवर साहब का प्रेम ही एक ऐसी सम्पत्ति थी, जिसके सामने दुनिया भर की दौलत हेच थी। उन्हें अपने सामने देख- कर उसे किसी वस्तु की इच्छा न होती थी। मगर एक महीने तक इस प्रेम के बाज़ार में घूमने पर भी तारा को वह वस्तु न मिली, जिसके लिए उसकी आत्मा लोलुप हो रही थी। वह कुँवर साहब से प्रेम की, अपार और अतुल प्रेम की, सच्चे और निष्कपट प्रेम की वात रोज़ सुनती थी; पर उसमें "विवाह" का शब्द न आने पाता था, मानो प्यासे को बाज़ार में पानी छोड़कर और सब कुछ मिलता हो। ऐसे प्यासे को पानी के सिवा और किस चीज़ से तृप्ति हो सकती है ? प्यास बुझने के बाद सम्भव है और चीज़ों की तरफ़ उसकी रुचि हो, पर प्यासे के लिए तो पानी सबसे मूल्यवान् पदार्थ है। वह जानती थी कुँवर साहब उसके इशारे पर प्राण तक दे देंगे, लेकिन विवाह की बात क्यों उनकी ज़बान से नहीं निकलती ? क्या इस विषय का कोई पत्र लिखकर अपना आशय कह देना असम्भव पा । फिर क्या वह उसे केवल विनोद की वस्तु बनाकर रखना चाहते हैं ! यह अपमान उससे न सहा जायगा। कुँवर के एक इशारे पर वह आग में कूद सकती थी, पर यह अपमान उसके लिए असह्य था । किसी शौकीन रईस के साथ वह इससे कुछ दिन पहले शायद एक-दो महीने रह जाती और उसे नोच-खसोटकर अपनी राह लेती किन्तु प्रेम का बदला प्रेम है, कुँवर साहब के साथ वह यह निर्लज जीवन न व्यतीत कर सकती थी।
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