२२६ मानसरोवर वह कोमलता, वह चपलता, वह माधुर्य किसी नत्रयौवा को लज्जित कर सकता था। तारा एक वार फिर हृदय में प्रेम का दोपक जला वैठी। आज से बीस साल पहले एक बार उसको प्रेम का कटु अनुभव हुआ था। तबसे वह एक प्रकार का वैधव्य जीवन व्यतीत करती रही। कितने प्रेमियों ने अपना हृदय उसकी भेंट करना चाहा था, पर उसने किसी की ओर आँख उठाकर भी न देखा था । उसे उनके प्रेम में कपट की गध आती थी। मगर आह ! आज उसका सयम उसके हाथ से निकल गया । एक बार फिर आज उसे हृदय में उसी मधुर वेदना का अनुभव हुआ, जो वीस साल पहले हुआ था । एक पुरुष का सौम्य स्वरूप उसको आँखों से वस गया, हृदय-पट पर खिंच गया ! उसे वह किसी तरह भूल न सकती थी। उसी पुरुष को उसने मोटर पर जाते देखा होता, तो कदाचित् उधर ध्यान भी न करती। पर उसे अपने सम्मुख प्रेम का उपहार हाथ में लिये देखकर वह स्थिर न रह सकी । सहसा दाई ने आकर कहा-बाईजी, रात की सब चीज़ रखी हुई हैं, कहिए तो लाऊँ? तारा ने कहा -- नहीं, मेरे पास कोई चीज लाने की ज़रूरत नहीं ; सगर ठहरो, क्या-क्या चीज़े हैं? “एक ढेर-का-ढेर तो लगा है वाईजी, कहाँ तक गिनाऊँ--अशफियाँ है, ब्रूचेज़, साल के पित, बटन, लाकेट, अंगूठियां सभी तो हैं । एक छोटे-से डिब्बे में एक सुन्दर हार है। मैंने आज तक वैसा हार नहीं देखा । सव सन्दूक में रख दिया है।' "अच्छा, वह सन्दूक मेरे पास ला ।” दाई ने सन्दक्क लाकर मेज़ पर रख दिया। उधर एक लडके ने एक पत्र लाकर तारा को दिया । तारा ने पत्र को उत्सुक नेत्रों से देखा-कुँवर निर्मलकान्त ओ० वी० ई० । लड़के से पूछा-यह पत्र किसने दिया ? वह तो नहीं, जो रेशमी साफा बांधे हुए थे ? लड़के ने केवल इतना कहा-मैनेजर साहब ने दिया है। और लपका हुआ बाहर दला गया। सन्दूक्त में सबसे पहले डिब्बा नज़र आयौ । तारा ने उसे खोला तो सच्चे मोतियों का सुन्दर हार था । डिब्बे में एक तरफ एक कार्ड भी तारा ने लपककर उसे निकाल लिया और पढ़ा-कुँवर निर्मलकान्त ..। कार्ड उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ा । वह झपटकर कुरसी से उठी और बड़े वेग से कई कमरों और बरामदों को पार A
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