२२२ मानसरोवर .? हूँ, वह लेता नहीं, स्वय कुछ मागता नहीं । तुझे क्या मालूम, मेरे हृदय की इस समय क्या दशा हो रही है। मैं इस आत्मिक पदार्थ पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर सकती हूँ। मांझी-और क्या दीजिएगा? मनोरमा-मेरे पास इससे बहुमूल्य और कोई वस्तु नहीं है, लेकिन तू अभी नाव खोल दे, तो प्रतिज्ञा करती हूं कि तुझे अपना महल दे दूंगी; जिसे देखने के लिए कदाचित् तू भी कभी गया हो। विशुद्ध श्वेत पत्थर से बना है, भारत में इसकी तुलना नहीं । अव एक क्षण को भी देर न कर। माँझी - ( हँसकर ) उस महल मे रहकर मुझे क्या आनन्द मिलेगा। उलटे मेरे भाई-बन्धु शत्रु हो जायेंगे। इस नौका पर अँधेरी रात में भी मुझे भय नहीं लगता। आंधी चलती रहती है, और मैं इस पर पड़ा रहता हूँ। किंतु वह महल तो दिन हो में फाड़ सायगा । मेरे घर के आदमी तो उसके एक कोने में समा जायेंगे । और आदमी कहाँ से लाऊँगा , मेरे नौकर-चाकर कहाँ ? इतना माल-असबाब कहाँ ? उसकी सफाई और मरम्मत कहाँ से कराऊँगा ? उसको फुलवारियां सूख जायँगी, उसकी क्यारियो में गीदड़ वोलेंगे और अटारियों पर कबूतर और अबाबीले घोंसले बनायेंगी। मनोरमा अचानक एक तन्मय अवस्था में उछल पड़ी। उसे प्रतीत हुआ कि सगीत निकटतर आ गया है। उसकी सुन्दरता और आनन्द अधिक प्रखर हो गया था- जसे वत्ती उकसा देने से दीपक अधिक प्रकाशमान हो जाता है। पहले चित्ताकर्षक था, तो अब आवेशजनक हो गया था। मनोरमा ने व्याकुल होकर कहा-आह ! तु फिर अपने मुंह से क्यों कुछ नहीं मांगता है अहा ! कितना विरागजनक राग है, कितना विह्वल करनेवाला ! मैं अब तनिक भी धीरज नहीं धर सकती । पानी उतार में जाने के लिए जितना व्याकुल होता है, श्वास हवा के लिए जितनी विकल होती है, गध उड़ जाने के लिए जितनी उतावली होती है, मैं उस स्वर्गीय सगीत के लिए उतनी व्याकुल हूँ। उस सगीत में कोयल की-सी मस्ती है, पपीहे की-सी वेदना है, श्यामा की- सी विह्वलता है, इसमें झरनों का-सा जोर है, और आंधी का-सा बम । इसमें वह सव कुछ है, जिससे विवेकाग्नि प्रज्वलित, जिससे आत्मा समाहित होती है, और अत करण पवित्र होता है। मॉझी, अघ एक क्षण का विलब मेरे लिए मृत्यु की यत्रणा है। 3
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