२१८ मानसरोवर उसकी विनती करेगा। उसके पैरों पड़ेगा और अंत में उसे मनाकर ही छोड़ेगा। सुभद्रा के प्रेम और अनुराग का नया प्रमाण पाकर वह मानो एक कठोर ,निद्रा से जाग उठा था। उसे अब अनुभव हो रहा था कि सुभद्रा के लिए उसके हृदय में जो स्थान था, वह खाली पड़ा हुआ है। उर्मिला उस स्थान पर अपना आधिपत्य नहीं जमा सकतो। अब उसे ज्ञान हुआ कि उमिला के प्रति उसका प्रेम केवल वह तृष्णा थी, जो स्वादयुक्त पदार्थों को देखकर ही उत्पन्न होती है। वह सच्ची क्षुधा न यी। अब फिर उसे सरल सामान्य भोजन की इच्छा हो रही थी। विलासिनी उर्मिला कभी इतना त्याग कर सकती है, इसमें उसे सन्देह था। सुभद्रा के घर के निकट पहुँचकर केशव का मन कुछ कातर होने लगा। लेकिन उसने जी कड़ा करके ज़ोने पर कदम रक्खा और एक क्षण मे सुभद्रा के द्वार पर पहुँचा लेकिन कमरे का द्वार बद था। अन्दर भी प्रकाश न था। अवश्य ही वह कहीं गई है, आती ही होगी। तब तक उसने बरामदे में टहलने का निश्चय किया। सहसा मालकिन आती हुई दिखाई दी। केशव ने बढकर पूछा-"आप बता सकती हैं कि यह महिला कहाँ गई हैं ?" मालकिन ने उसे सिर से पाँव तक देखकर कहा-"वह तो आज यहाँ से, चली गई।" केशव ने हकबकाकर पूछा - "चली गई ! कहाँ चली गई। "यह तो मुझसे कुछ नहीं बताया।" "कव गई ?" "वह तो दोपहर को हो चली गई ।" “अपना असबाब लेकर गई?" "असवाव किसके लिए छोड़ जाती ? हाँ एक छोटा सा पैकेट अपनी एक सहेली के लिए छोड़ गई हैं। उस पर मिसेज़ केशव लिखा हुआ है। मुझसे कहा था कि यदि वह आ जाय, तो उन्हें दे देना, नहीं डाक से भेज देना।' केशव को अपना हृदय इस तरह बैठता हुआ मालूम हुआ जैसे सूर्य का अस्त होता है । एक गहरी साँस लेकर बोला- "आप मुझे वह पैकेट दिखा सकती हैं ? केशव मेरा ही नाम है।" मालकिन ने मुसकिराकर कहा- मिसेज़ केशव को कोई आपत्ति तो न होगी ?
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