पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/२१६

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२१२ मानसरोवर ढूँढती हुई चली जा रही थी। हाय ! क्या इसो भांति उसे जीवन-पथ में भी भट- कना पड़ेगा। सहसा एक पुलिसमैन ने पुकारा-मैडम, तुम कहाँ जा रही हो ? सुभद्रा ने टिठककर कहा-कहीं नहीं। "तुम्हारा स्थान कहाँ है ?" "मेरा स्थान ?” "हाँ, तुम्हारा स्थान कहाँ है ? मैं तुम्हें बड़ी देर से इधर-उधर भटकते देख रहा हूँ। किस स्ट्रीट में रहती हो ?" सुभद्रा को उस स्ट्रीट का नाम तक न याद था। "तुम्हें अपने स्ट्रीट का नाम तक याद नहीं ?" 'भूल गई, याद नहीं आता।" सहसा उसकी दृष्टि सामने के एक साइनबोर्ड की तरफ उठी। ओह ! यही तो उसकी स्ट्रीट है । उसने सिर उठाकर इधर-उधर देखा । सामने ही उसका डेरा था। और इसी गली में, अपने ही घर के सामने न जाने कितनी देर से वह चक्कर लगा रही थी। (८) अभी प्रात काल ही था कि युवती सुभद्रा के कमरे में पहुँची। वह उसके कपड़े सो रही थी। उसका सारा तन-मन कपड़ों में लगा हुआ था। कोई युवती इतनी एकाग्र- चित्त होकर अपना झार भी न करती होगी। न-जाने उससे कौन-सा पुरस्कार 'लेना चाहती थी। उसे युवती के आने की खबर भी न हुई। युवती ने पूछा- तुम कल मन्दिर में नहीं आई? सुभद्रा ने सिर, उठाकर देखा, तो ऐसा जान पड़ा, मानो किसी कवि की कोमल कल्पना मूर्तिमती हो गई है। उसकी रूप-छवि अनिंद्य थी। प्रेम की विभूति रोम-रोम मे प्रदर्शित हो रही थी। सुभद्रा दौड़कर उसके गले से लिपट गई, जैसे उसकी छोटी बहन आ गई हो, और बोली-हाँ, गई तो थी।। "मैंने तुम्हें नहीं देखा।" "हाँ । मैं अला थी।" "केशव को देखा ?'