सोहाग का शव २०५ युवती ने कहा-वह यहाँ विद्यालय में पढ़ते हैं। भारत-सरकार ने उन्हें भेजा है। अभी साल-भर भी तो आये नहीं हुए। तुम देखकर प्रसन्न होगी। तेज और बुद्धि की मूर्ति समझ लो ! यहाँ के अच्छे-अच्छे प्रोफेसर उनका आदर करते हैं। ऐसा सुन्दर भापण तो मैंने और किसी के मुंह से सुना ही नहीं । उनका जीवन आदर्श है । मुझसे उन्हें क्यों प्रेम हो गया, मुझे इसका आश्चर्य है। मुझमें न रूप है, न लावण्य । यह मेरा सौभाग्य है । तो मैं शाम को कपड़े लेकर आऊँगी। सुभद्रा ने मन में उठते आवेश के वेग को संभालकर कहा- अच्छी बात है। जब युवती चली गई, तो सुभद्रा फूट फूटकर रोने लगी। ऐसा जान पड़ता था, मानो देह में रक्त ही नहीं, मानो प्राण निकल गये हैं। वह कितनी नि सहाय, कितनी दुर्बल है, इसका आज अनुभव हुआ। ऐसा म लूम हुआ, मानो ससार मे उसका कोई नहीं है । अब उसका जीवन व्यर्थ है। उसके लिए अब जोवन में रोने के सिवा और क्या है ? उसको सारी जानेन्द्रियां शिथिल सी हो गई थीं, मानो वह किसी ऊँचे वृक्ष से गिर पड़ी हो । हा ! यह उसके प्रेम और भक्ति का पुरस्कार है। उसने कितना आग्रह करके केशव को यहाँ भेजा था ? इसीलिए कि यहां आते ही वह उसका सर्वनाश कर दें? पुरानी बातें याद आने लगीं। केशव की वह प्रेमातुर आँखें सामने आ गई । वह सरल, सहासमूर्ति आँखों के सामने नाचने लगी। उसका ज़रा सिर धमकता था, तो केशव कितना व्याकुल हो जाता था। एक बार जब उसे फसली बुखार आ गया था तो केशव कितना घबराकर, पन्द्रह दिन की छुट्टी लेकर, घर आ गया था और उसके सिरहाने बैठा रात-भर पखा झलता रहा था। वही केशव अब इतनी जल्द उससे ऊब उठा | उसके लिए सुभद्रा ने कौन-सी बात उठा रखी। वह तो उसी को अपना प्राणाधार, अपना जीवनधन, अपना र स्त्र समझती थी। नहीं-नहीं, केशव का दोष नहीं, सारा दोष इसोका है, इसीने अपनो मधुर वातों से उन्हें वशीभूत कर लिया है। इसकी विद्या, बुद्धि और वाक्पटुता ही ने उनके हृदय पर विजय पाई है। हाय ! उसने कितनी वार केशव से कहा था, मुझे भी पढाया करो, लेकिन उन्होंने हमेशा यहो जवाब दिया, तुम जैसी हो, मुझे वैसी ही पसन्द हो। मैं तुम्हारी स्वाभाविक सरलता को पढ़ा-पढ़ाकर मिटाना नहीं चाहता। केशव ने उसके साथ कितना बड़ा अन्याय किया है। लेकिन यह उनका दोष नहीं, यह इसी यौवन-मतवाली छोकरी को माया है।
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