२०० मानसरोवर जाते, तो एक पत्र आ जाता ; वह भी बेदिली से लिखा हुआ-काम की अधिकता और समय के अभाव के रोने से भरा हुआ । एक वाक्य भी ऐसा नहीं, जिससे' हृदय को शान्ति हो, जो टपकते हुए दिल पर मरहम रखे। हा ! आदि से अन्त तक 'प्रिये' शब्द का नाम नहीं ! सुभद्रा अधीर हो उठो । उसने योरप-यात्रा का निश्चय कर लिया । वह सारे कष्ट सह लेगी, सिर पर जो कुछ पड़ेगी, सह लेगी ; केशव को आँखों से देखती तो रहेगी। वह इस बात को उनसे गुप्त रखेगी, उनकी कठिनाइयों को और न गी, उनसे बोलेगी भी नहीं ; केवल उन्हें कभी-कभी आँख भरकर देख यही उसकी शान्ति के लिए काफी होगा । उसे क्या मालूम था कि उसका केशव अव उसका नहीं रहा । वह अब एक दूसरी ही कामिनी के प्रेम का भिखारी है सुभद्रा कई दिनों तक इस प्रस्ताव को मन में रखे हुए सेती रही। उसे किसी प्रकार की शङ्का न होती थी। समाचार-पत्रों के पढ़ते रहने से उसे समुद्री यात्रा का हाल मालूम होता रहता था । एक दिन उसने अपने सास-ससुर के सामने अपना निश्चय प्रकट किया। उन लोगों ने बहुत समझाया, रोकने की बहुत चेष्टा की ; लेकिन सुभद्रा ने अपना हठ न छोड़ा। आखिर जब लोगों ने देखा कि यह किसी तरह नहीं मानती, तो राजी हो गये । मैकेवाले भी समझाकर हार गये । कुछ रुपये उसने स्वयं जमा कर रखे थे, कुछ ससुराल में मिले । मां-बाप ने भी मदद की। रास्ते के खर्च की चिन्ता न रही। इंगलैंड पहुँचकर वह क्या करेगी, इसका अभी उसने कुछ निश्चय न क्यिा । इतना जानती थी कि परिश्रम करनेवाले को रोटियों को कहीं कमी नहीं रहती। विदा होते समय सास और ससुर दोनों स्टेशन तक आये । जव गाड़ी ने सीटी दी, तो सुभद्रा ने हाथ जोड़कर कहा- मेरे जाने का समाचार वहाँ न लिखिएगा। नहीं तो उन्हें चिन्ता होगी और पढ़ने में उनका जी न लगेगा। ससुर ने आश्वासन दिया। गाड़ी चल दी। ( ३ ) लन्दन के उस हिस्से में, जहाँ इस समृद्धि के समय में भी दरिद्रता का राज्य ऊपर के एक छोटे-से कमरे में सुभद्रा एक कुर्सी पर बैठी है। उसे यहाँ आये आज, एक महीना हो गया है। यात्रा के पहले उसके मन में जितनी शङ्काएँ थीं, सभी शान्त होती जा रही हैं। बम्बई-वन्दर मे जहाज़ परं जगह पाने का प्रश्न बड़ी आसानी से हल हो गया । वह अकेली औरत न थी, जो योरप जा रही हो । पाँच-छ लिया और 1
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