सोहाग का शव १९९ सुभद्रा ने उसके गले मे वाँहें डालकर विश्वास-पूर्ण दृष्टि से देखा और बोली- मैं दिल्लगो कर रही थी। "अगर इद्रलोक की अप्सरा भी आ जाय, तो आँख उठाकर न देखू । ब्रह्मा ने ऐसो दूसरी सृष्टि की ही नहीं।" "चोच में कोई छुट्टी मिले, तो एक बार चले आना ।' "नहीं प्रिये, बीच मे शायद छुट्टी न मिलेगी। मगर जो मैंने सुना कि तुम रो- रोकर घुली जाती हो, दाना पानी छोड़ दिया है, तो मैं अवश्य चला आऊँगा। ये फूल जरा भी कुम्हलाने न पायें।" दोनों गले मिलकर विदा हो गये। बाहर सबधियो और मित्रों का एक समूह खड़ा था। केशव ने बड़ों के चरण छुए, छोटों को गले लगाया और स्टेशन को ओर चले । मित्रगण स्टेशन तक पहुँचाने गये। एक क्षण में गाड़ी यात्री को लेकर चल दी। उधर केवश गाड़ी में बैठा हुआ पहाड़ियां की वहार देख रहा था, इवर सुभद्रा भूमि पर पड़ो सिसकियों भर रही थी। (२) दिन गुज़रने लगे। उसी तरह, जैसे बीमारी के दिन कटते हैं-दिन पहाड़, रात काली वला । रात-भर मनाते गुज़रती थीं कि किसी तरह भोर हो, भोर होता तो मनाने लगती जल्द शाम हो । मैके गई कि वहां जी बहलेगा। दस-पांच दिन परिवर्तन का कुछ असर हुआ, फिर उससे भी बुरी दशा हुई , भागकर ससुराल चली आई। रोगी करवट बदलकर आराम का अनुभव करता है। पहले पांच-छ महीनों तक तो केशव के पत्र पन्द्रहवें दिन बराबर मिलते रहे। उनमें वियोग-दुख कम, नये-नये दृश्यों का वर्णन अधिक होता था। पर सुभद्रा सन्तुष्ट थी । पत्र आते हैं, वह प्रसन्न हैं, कुशल से हैं, उसके लिए यही काफो था। इसके प्रतिकूल वह पत्र लिखती, तो विरह-व्यथा के सिवा उसे कुछ सूमता ही न था। कभी- कभी जब जी वेचैन हो जाता, तो पछताती कि व्यर्थ जाने दिया। कहीं एक दिन मर जाऊँ, तो उनके दर्शन भो न हों। लेकिन उठे महीने से पत्रों में भी विलन्त्र होने लगा। कई महीने तक तो महीने मे एक पत्र आता रहा, फिर वह भी वन्द हो गया । सुभद्रा के चार-छ पन पहुँच
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