सोहाग का शव (१) मध्यप्रदेश के एक पहाड़ी गांव में एक छोटे-से घर की छत पर एक युवक मानो सध्या की निस्तब्धता में लीन हुआ बैठा था। सामने चद्रमा के मलिन प्रकाश में ऊदी पर्वतमालाएँ अनत के स्वप्न की भाँति गभीर, रहस्यमय, संगीतमय, मनोहर मालूम होती थीं। उन पहाड़ियों के नीचे जल-धारा को एक रौप्य रेखा ऐसी मालूम होती थी, मानो उन पर्वतों का समस्त सगीत, समस्त गाभीर्य, संपूर्ण रहस्य इसी उज्ज्वल प्रवाह में लीन हो गया हो। युवक की वेष-भूषा से प्रकट होता था कि उसकी दशा बहुत सपन्न नहीं है। हां, उसके मुख से तेज और मनस्विता झलक रही थी । उसकी आँखों पर ऐनक न थी, न मूंछे मुड़ी हुई थीं, न वाल सँवारे हुए थे, कलाई पर घड़ी न थी , यहाँ तक कि कोट के जेब में फाउटेन पेन भी न था। या तो वह सिद्धातों का प्रेमी था, या आडबरों का शत्रु। युवक विचारों में मौन उसी पर्वतमाला की ओर देख रहा था कि सहसा बादल की गरज भी भयकर ध्वनि सुनाई दी। नदी का मधुर गान उस भीषण नाद में डूब गया। ऐसा मालूम हुआ, मानो उस भयंकर नाद ने पर्वतों को भी हिला दिया है, मानो पर्वतो में कोई घोर सग्राम छिड़ गया है। यह रेलगाड़ी थी, जो नदी पर बने हुए पुल से चली आ रही थी। एक युवती कमरे से निकलकर छत पर आई और बोली-आज अभी से गाढ़ी आ गई ! इसे भी आज ही वैर निभाना था। युवक ने युवती का हाथ पकड़कर कहा-प्रिये, मेरा जी चाहता है, कहीं न जाऊँ , मैंने निश्चय कर लिया। मैंने तुम्हारी खातिर से हामी भर ली थी, पर अव जाने की इच्छा नहीं होती । तीन साल कैसे कटेंगे ? युवती ने कातर स्वर में कहा-तीन साल के वियोग के बाद फिर तो जीवन-
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