मानसरोवर फिरकर यह दृश्य देखा, तो रुक गये और फेकूराम से पूछा-क्यों बेटा, कहाँ नेवता है ? O- फेकू-बता दें, तो हमें मिठाई दोगे न ? चिन्ता० -हाँ, दूंगा, बताओ। फेकू-रानी के यहाँ। चिन्ता० -कहाँ की रानी फेकू-यह मैं नहीं जानता। कोई बड़ी रानी हैं। नगर में कई बड़ी-बड़ी रानियाँ थी। पण्डितजी ने सोचा, सभी रानियों के द्वार पर चक्कर लगाऊँगा । जहाँ भोज होगा, वहीं कुछ भीडभाड़ होगी ही, पता चल जायगा । वह निश्चय करके वे लौट पड़े। सहानुभूति प्रकट करने में अब कोई बाधा न थी। मोटेरामजी के पास आये, तो देखा कि वे पड़े कराह रहे है। उठने का नाम नहीं लेते। घबराकर पूछा--गिर कैसे पड़े मित्र, यहाँ कहीं गढ़ा भी तो नहीं है! मोटे०--तुमसे क्या मतलब ! तुम लड़के को ले जाओ, जो कुछ पूछना चाहो, पूछो। चिन्ता०—मैं यह कपट-व्यवहार नहीं करता । दिल्लगी की थी, तुम बुरा मान गये। ले उठ तो, बैठो • राम का नाम लेके । मैं सच कहता हूँ, मैंने कुछ नहीं पूछा। मोटे -चल झठा । चिन्ता०-जनेऊ हाथ में लेकर कहता हूँ। मोटे-तुम्हारी शपथ का विश्वास नहीं । चिन्ता -तुम मुझे इतना धूर्त समझते हो ? मोटे--इससे कहीं अधिक । तुम गगा मे डूबकर शपथ खाओ, तो भी मुझे विश्वास न आये। चिन्ता०--दूसरा यह बात कहता, तो मूंछ उखाड़ लेता। मोटे०--तो फिर आ जाओ! चिन्ता--पहले पण्डिताइन से मोटेराम यह भस्मक व्यंग्य न सह सके। चट उठ बैठे और पण्डित चिन्तामणि O आओ।
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/२०
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