पिसनहारो का कुआँ १९५ दूसरे दिन और लड़के न आये, वालिका भी दिन-भर मजूरी करतो रहो। लेकिन सध्या समय वहाँ फिर दीपक जला और फिर वह खुरपी हाथ में लिये वहां बैठी दिखाई दी। गाँववालो ने उसे मारा-पीटा, कोठरी में बद किया, पर वह अवकाश पाते ही वहाँ जा पहुँचती। गांव के लोग प्राय श्रद्धालु होते ही है, बलिका के इस अलौकिक अनुराग ने आखिर उनमें भी अनुराग उत्पन्न किया । कुआं खुदने लगा। इधर कुआँ खुद रहा था, उवर वालिका मिट्टी से इंटें बनाती थी। इस खेल में सारे गांव के लड़के शरीक होते थे। उजाली रातों में जब सब लोग सो जाते, तब भी वह ईटें यापती दिखाई देती। न-जाने इतनी लगन उसमें कहाँ से आ गई थी। सात वर्ष की उम्र कोई उम्र होती है ? लेकिन सात वर्ष की वह लड़की बुद्धि और बातचीत में अपने तिगुनी उम्रवालों के कान काटती थी। आखिर एक दिन वह भी आया कि कुओं बंध गया और उसकी पक्की जगत तैयार हो गई । उस दिन वालिका उसी जगत पर सोई। आज उसके हर्ष की सीमा न थी। गाती थी, चहकती थी । प्रात काल उस जगत पर केवल उसकी लाश मिली। उस दिन से लोगों ने कहना शुरू किया, यह वही बुढिया गोमती थी। इस कुएँ का नाम "पिसनहारी का कुआँ" पड़ा।
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