पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१९८

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१९४ मानसरोवर .. पीने की। न कोई शका थी, न भय । अन्धेरा हो गया; पर वह ज्यों-की-त्यों बैठी गड्ढा खोद रही थी। उस समय किसान लोग भूलकर भी उधर से न निकलते थे, पर बालिका निशक वैठी भूमि से मिट्टी निकाल रही थी। जब अन्धेरा हो गया, तो वह चली गई। दूसरे दिन वह बड़े सबेरे उठी और इतनी घास खोदी, जितनी वह कभी दिन- भर मे भी न खोदतो था। दोपहर के बाद वह अपनी खाँची और खुरपी लिये फिर उसी स्थान पर पहुँची ; पर आज वह अकेली न थी, उसके साथ दो वालक और भी थे। तीनों वहाँ साँझ तक 'कुआं-कुआं खेलते रहे । वालिका गडढे के अन्दर खोदती थी और दोनों व.लक मिट्टी निकाल निकालकर फेंकते थे। तीसरे दिन दो लड़के और भी उस खेल में मिल गये। शाम तक खेल होता रहा। आज गड्ढा दो हाथ गहरा हो गया था। गांव के बालकों-बालिकाओ मे इस विलक्षण खेल ने अभूतपूर्व उत्साह भर दिया था ! चौथे दिन और भी कई वालक आ मिले । सलाह हुई, कौन अन्दर जाय, कौन मिट्टी उठाये, कौन झोआ खींचे । गड्ढा अव चार हाथ गहरा हो गया था, पर अभी तक वालकों के सिवा और किसी को उसकी खबर न थी। एक दिन रात को एक किसान अपनी खोई हुई भैस हूँढ़ता हुआ उस खंडहर में जा निकला । अन्दर मिट्टी का ऊँचा ढेर, एक बड़ा-सा गड्ढा और एक टिमटिमाता हुआ दीपक देखा, तो डरकर भागा। औरों ने भो आकर देखा, कई आदमी थे। कोई शका न थी। समीप जाकर देखा, तो बालिका बैठी थी। एक आदमी ने पूछा- "अरे, क्या तूने यह गड्ढा खोदा है ?" बालिका ने कहा--"हाँ।" "गड्ढा खोदकर क्या करेगी।" “यहाँ कुआँ बनाऊँगो।" "कुआं कैसे बनायेगी ?" "जैसे इतना खोदा है, वैसे ही और खोद लूंगी। गाँव के सब लड़के खेलने आते हैं।" "मालूम होता है, तू अपनी जान देगी और अपने साथ और लड़कों को भी मारेगी । खवरदार, जो कल से गड्ढा खोदा ?" 1