पिसनहारी का कुआँ १८५ इस तरह चौधरी विनायकसिंह को वसीयत करके, उसी रात को, बुढिया गोमतो परलोक सिधारी । मरते समय अन्तिम शब्द जो उसके मुख से निकले, वह यही थे-"कुआँ बनवाने में देर न करना।" उसके पास धन है, यह तो लोगों का अनुमान था, लेकिन दो हज़ार हैं, इसका किसी को अनुमान न था। बुढिया अपने धन को ऐब की तरह छिपाती थी। चौधरी गांव का मुखिया और नीयत का साफ आदमी था । इसीलिए बुढिया ने उससे यह अतिम आदेश किया था। (२) चौधरी ने गोमती के क्रिया-कर्म में वहुत रुपये न खर्च किये। ज्यों ही इन सस्कारों से छुट्टी मिली, वह अपने बेटे हरनाथसिह को बुलाकर ईट, चूना, पत्थर का तखमीना करने लगे । हरनाथ अनाज का व्यापार करता था। कुछ देर तक तो वह बैठा सुनता रहा, फिर बोला- अभी दो-चार महीने कुआँ न बने, तो कोई बड़ा हज है ? चौधरी ने 'हुँह !' करके कहा-- हरज तो कुछ नहीं, लेकिन देर करने का काम ही क्या है । रुपये उसने दे ही दिये हैं, हमें तो सेत में यश मिलेगा । गोमती ने मरते-मरते जल्द कुआँ बनवाने को कहा था । हरनाथ -'हाँ, कहा तो था, लेकिन आजकल बाजार अच्छा है। दो तीन हज़ार का अनाज भर लिया जाय, तो अगहन-पूस तक सवाया हो जायगा । मैं आपको कुछ सूद दे दूंगा। चौवरी का मन आशा और भय के दुबिधे में पड़ गया। दो हज़ार के कहीं ढाई हज़ार हो गये, तो क्या कहना, जगमोहन में कुछ बेल-बूटे वनवा दूंगा । लेकिन भय था कि कहीं घाटा हो गया तो 2 इस शका को वह छिपा न सके, बोले-जो कहीं घाटा हो गया तो ? हरनाथ ने तड़पकर कहा -घाटा क्या हो जायगा, कोई बात है ? "मान लो घाटा हो गया तो?" हरनाथ ने उत्तेजित होकर कहा-यह कहो कि तुम रुपये नहीं देना चाहते । वड़े धर्मात्मा बने हो! अन्य वृद्धजनों की भांति चौवरी भी बेटे से बहुत दवते थे। कातर स्वर में बोले-मै यह कब कहता हूँ कि रुपये न दूंगा। लेकिन पराया धन है, सोच समझ ही कर तो उममें हाथ लगाना चाहिए। वनिज-व्यापार का हाल कौन जानता है ।
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