पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१८८

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पिसनहारी का कुआँ 1 गोगती ने मृनुदामा पर पो गए, नारी पिनायमसिह ने कहा- चौधरी, गरे जीवन की वही लालसा थी। चौधतीने मम्मोर मोर ---गको रछ चिन्ता न फले काकी; तुम्हारी लालसा भगवान पूरी करेंगे। में आज से नजगे को बुलाकर काम पर लगा देता । देव ने चाहा, तो तुम अपने पुरी का पानी पियोगी। तुमने तो गिना होगा, कितने सगे है। गोमती में एक गण गति पर करके दिखरी हुई स्पति को एकत्र करके कहा- शैया, मैं क्या जान , यितने रुपये है। जो पुट है, वह तो हांड़ी में हैं। इतना करना कितने ही में चार रत जाय । रिसके सामने हाथ मिलाते फिरोगे। गरी ने बन्द होली को उठायर हाथों से तोलते हुए कहा-ऐसा तो करेंगे ही काकी, सनि टेनेवाला है। एक चुटकी भरा तो किसी के घर से निकलती नहीं, कुआं बनवाने को कौन देता है। धन्य हो तुम कि अपनी उन्न भर की कमाई इन वर्ग काज के लिए दे दी।" गोमती ने गर्व से कहा-चा, तुम तो राव बहुत छोटे थे। तुम्हारे काका मरे तो मेरे हाथ में एक कौसी भी-न थी। दिन-दिन भर भूसों पड़ी रहती। जो कुछ उनके पास या, वह सब उनकी बीमारी में उठ गया। वह भगवान् के बड़े भक्त थे। इसीलिए भगवान् ने उन्हें जल्दी से बुला लिया। उस दिन से आज तक तुम देख रहे हो कि मैं किस तरह दिन काट रही हूँ। मैंने एक एक रात में मन मन भर अनाज पीसा है बेटा ! देखनेवाले अचरज मानते थे। न जाने इतनी तागत मुझमें कहाँ में आ जाती थी। बस, यही लालसा रही कि उनके नाम का एक छोटा सा कुआं, गांव मे वन जाय । नाम तो चलना चाहिए । इसीलिए तो आदमी वेटे-बेटो को रोता है।"