१६४ मानसरोवर को मालूम हो गया कि गांव में पिसनहारी का स्थान खाली है और वह इस कमी को पूरा कर सकती है। वह यहाँ से घर लौटी, तो उसके सिर पर गेहूँ से भरी हुई एक टोकरी थी। पयाग ने पहर रात ही से चक्की की आवाज़ सुनी, तो रुक्मिन से बोला-आज तो सिलिया अभी से पोसने लगी। रुक्मिन वाज़ार से आटा लाया करती थी। अनाज और आटे के भाव में विशेष अन्तर न था। उसे आश्चर्य हुआ कि सिलिया इतने सवेरे क्या पीस रही है। उठकर चक्कीवाली कोठरी में गई, तो देखा, सिलिया अँधेरे में बैठी कुछ पीस रही है। उसने जाकर उसका हाथ पकड लिया और टोकरी को उठाकर बोली-तुझसे किसने पीसने को कहा है ? किसका अनाज पीस रही है ? सिलिया ने निश्शक होकर कहा -- तुम जाकर आराम से सोती क्यों नहीं ! मैं पीसती हूँ तो तुम्हारा क्या बिगड़ता है । चक्की की घुमुर-घुमुर भी नहीं सही जाली ? लाओ, टोकरी दे दो। बैठे-बैठे कब तक खाऊँगी, दो महीने तो हो गये । "मैंने तो तुझसे कुछ नहीं कहा ।" "तुम कहो चाहे न कहो, अपना धरम भी तो कुछ है ?" "तू अभी यहाँ के आदमियों को नहीं जानती । आटा पिसाते तो सबको अच्छा लगता है । पैसे देते रोती हैं। किसका गेहूँ है ? मैं सवेरे उसके सिर पटक आऊँगी।" सिलिया ने रुक्मिन के हाथ से टोकरी छीन ली और बोली--पैसे क्यों न देंगे ? 'कुछ बेगार करती हूँ। "तू न मानेगी ?" "तुम्हारी लौंडो वनकर न रहूँगी।" यह तकरार सुनकर पयाग भी आ पहुँचा और रुक्मिन से वोला-~-काम करती है तो करने क्यों नहीं देती ? अव क्या जनम-भर बहुरिया ही बनी रहेगी। हो तो गये दो महीने । "तुम क्या जानो, नाक तो मेरो कटेगी।" सिलिया बोल उठी-तो क्या कोई वैठे खिलाता है। चौका-वरतन, झाडू-बहारू, रोटी-पानी, पीसना-कूटना, यह कौन करता है ? पानी खींचते-खींचते मेरे हाथों में प्रट पड गये। मुझसे अब यह सारा काम न होगा।
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