१५८ मानसरोवर कहीं अन्याय देखा और भवे तन गई , कहीं पत्रों मे अत्याचार को खवर देखी और चेहरा तमतमा उठा । ऐसा तो मैंने आदमी ही नहीं देखा । ईश्वर ने अकाल ही बुला लिया, नहीं तो वह मनुष्यों में रन होता । किसी मुसीवत के मारे का उद्धार करने को अपने प्राण हथेली पर लिये फिरता था। स्त्री-जाति का इतना आदर और सम्मान कोई क्या करेगा । स्त्री उसके लिए पूजा और भक्ति की वस्तु थी। पाँच वर्ष हुए, यही होली का दिन था ! मैं भग के नशे मे चूर, रग मे सिर से पांच तक नहाया हुआ उसे गाना सुनने के लिए बुलाने गया, देसा वह कपड़े पहने कहीं जाने को तैयार है। पूछा-कहाँ जा रहे हो ? 'उसने मेरा हाथ पकड़कर कहा--तुम अच्छे वक्त पर आ गये, नहीं तो मुझे जाना पडता । एक अनाथ बुढिया मर गई है, कोई उसे कन्धा देनेवाला नहीं मिलता। कोई किसी मित्र से मिलने गया हुआ है, कोई नशे मे चूर पड़ा हुआ है, कोई मित्रों की दावत कर रहा है, कोई महफिल सजाये वेठा है । कोई लाश को उठानेवाला नहीं। ब्राह्मण-क्षत्रिय उस चमारिन की लाश कैंस छुयेंगे, उनका तो धर्म भ्रष्ट होता है, कोई तैयार नहीं होता। बड़ी मुश्किल से दो कहार मिले हैं। एक मैं हूँ, चौघे आदमी की कमी थी, सो ईश्वर ने तुम्हें भेज दिया। चलो चलें 'हाय ! अगर मैं जानता कि यह प्यारे मनहर का आदेश है, तो आज मेरी आत्मा को इतनी ग्लानि न होती। मेरे घर कई मित्र आये हुए थे। गाना हो रहा उस वक्त लाश उठाकर नदी जाना मुझे अप्रिय लगा। बोला- इस वक्त तो भाई, मैं नहीं जा सकूँगा। घर पर मेहमान बैठे हुए हैं। मै तुम्हे बुलाने आया था। 'मनहर ने मेरी ओर तिरस्कार के नेत्रों से देखकर कहा-अच्छी बात है, तुम जाओ , मै और कोई साथी खोज लू गा। मगर तुमसे मुझे ऐसी आशा नहीं थी। तुमने भी वही कहा, जो तुमसे पहले औरो ने कहा था । कोई नई बात नहीं थी। अगर हम लोग अपने कर्तव्य को भूल न गये होते, तो आज यह दशा ही क्यों होती ? ऐसी होली को धिक्कार है ! त्योहार तमाशा देखने, अच्छी-अच्छी चीजें खाने और अच्छे-अच्छे कपड़े पहनने का नाम नहीं है । यह व्रत है, तप है, अपने भाइयों से प्रेम और सहानुभूति करना ही त्योहारों का खास मतलब है । और कपड़े लाल करने के पहले खून को लाल कर लो । सुफेद खून पर यह लाली शोभा नहीं देती। 'यह कह वह चला गया। मुझे उस वक्त यह फटकार बहुत बुरी मालूम हुई । था।
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