आँसुओं को होलो १५५ क्या होता है। जितनी देर में लोगो ने भोजन किया, उतनी देर में खिचड़ी तैयार हो गई । बड़े साले ने खुद चम्पा को ऊपर भेजा कि खिचड़ी को थाली ऊपर दे आये । सिलबिल ने थाली की ओर कुपित नेत्रों से देखकर कहा -इसे मेरे सामने से हटा ले जाव । 'क्या आज उपास ही करोगे ?' 'तुम्हारी यही इच्छा है, तो यही सही ।' 'मैंने क्या किया । सबेरे से जुती हुई हूँ। मैया ने खुद खिचडी डलवाई और मुझे यहाँ भेजा। 'हाँ, वह तो मैं देख रहा हूँ कि मैं घर का स्वामी नहीं । सिकन्दरो ने उस पर कब्जा जमा लिया , मगर मैं यह नहीं मान सकता कि तुम चाहतीं, तो और लोगों के पहले ही मेरे पास थाली न पहुँच जाती। मैं इसे पातिव्रत धर्म के विरुद्ध सममता हूँ और क्या कहूँ।' 'तुम तो देख रहे थे कि दोनो जने मेरे सिर पर सवार थे।' 'अच्छी दिल्लगी है कि और लोग तो समोसे और सस्ते उड़ायें और मुझे मूंग की खिचड़ी दी जाय । चाह रे नसीर ।' 'तुम इसे दो-चार कौर खा लो, मुझे ज्योंही अवसर मिलेगा, दूसरी थाली लाऊँगी।' 'सारे कपड़े रंगवा डाले । अब दफ्तर कैसे जाऊँगा। यह दिल्लगी मुझे जरा भी नहीं भाती । मैं इसे वदमाशी कहता हूँ। तुमने सन्दक की कुञ्जी क्यों दे दी, क्या मैं इतना पूछ सकता हूँ? 'ज़बरदस्ती छीन ली । तुमने सुना नहीं ? करती क्या ?' 'अच्छा, जो हुआ सो हुआ, यह थाली ले जाव । धर्म समझना, तो दूसरी थाली लाना, नहीं आज व्रत ही सही।' एकाएक पैरों की आहट पाकर सिलविल ने सामने देखा, तो दोनों साले चले आ रहे हैं। उन्हें देखते ही विचारे ने मुंह बना लिया, 'चादर से शरीर ढक लिया और कराहने लगे। वड़े साले ने कहा-कहिए, कैसी तबीयत है ? थोड़ी-सी सिचड़ी खा लीजिए। सिलविल ने मुँह बनाकर कहा-अभी तो कुछ खाने की इच्छा नहीं है। 'नहीं, उपवास करना तो हानिकर होगा । खिचड़ी खा लीजिए।'
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