कजाको 023 थे। मैं मुन्नू के पैरों में पीनस की पैजनियाँ बांध रहा था औरत घट निकाले हुए आई और आँगन मे खड़ी हो गई। उसके कपड़े फटे हुए और मैले थे , पर गोरी, सुन्दर स्त्री थी। उसने मुझसे पूछा-भैया, बहूजी कहाँ हैं ? मैंने उसके पास जाकर उसका मुंह देखते हुए कहा ---तुम कौन हो, क्या बेचती हो? औरत-कुछ बेचती नहीं नहीं हूँ, तुम्हारे लिए ये कमलगट्टे लाई हूँ, भैया । तुम्हें तो कमलगट्टे बहुत अच्छे लगते हैं न ? मैंने उसके हाथों से लटकती हुई पोटली को उत्सुक नेत्रों से देखकर पूछा-कहाँ से लाई हो ? देखें। औरत-तुम्हारे हरकारे ने भेजा है भैया । मैंने उछलकर पूछा---कजाकी ने ? औरत ने सिर हिलाकर 'हाँ' कहा ओर पोटलो खोलने लगी। इतने में अम्मांजी भी रसोई से निकल भाई । उसने अम्मा के पैरों को स्पर्श किया। अम्मा ने पूछा- तू कजाकी की घरवाली है ? औरत ने सिर झुका लिया । -आजकल कजाकी क्या करता है ? औरत ने रोकर कहा-बहूजी, जिस दिन से आपके पास से आटा लेकर गये हैं, उसी दिन से वोमार पड़े हैं। बस, भैया-भंया किया करते हैं । भैया ही में उनका मन बसा रहता है । चौक-चौंककर भैया ! भैया ! कहते हुए द्वार की ओर दौड़ते हैं । न- जाने उन्हें क्या हो गया है, वहूजी ! एक दिन मुझसे कुछ कहा न सुना, घर से चल दिये और एक गली में छिपकर भैया को देखते रहे । जब भैया ने उन्हें देख लिया, - अम्मा तो भागे। तुम्हारे पास आते हुए लजाते हैं। मैने कहा-हाँ-हां, मैंने उस दिन तुमसे जो कहा था, अम्मांजी ! अम्मा-घर में कुछ खाने-पीने को है ? औरत–हाँ वहुजी, तुम्हारे आसिरबाद से खाने-पीने का दुःख नहीं है। आज सबेरे उठे और तालाब की ओर चले गये । बहुत कहती रही, वाहर मत जाओ, हवा लग जायगी , मगर न माना ! मारे कमजोरी के पैर कांपने लगते हैं , मगर तालाब
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