१४६ मानसरोवर मैंने कहा-मैं रोज खाने को दूंगा। कजाकी वोला- तो मैं भी रोज़ आऊँगा। मैं नीचे उतरा और दौड़कर अपनी सारी पूँजी रठा लाया । कजाकी को रोज बुलाने के लिए उस वक्त मेरे पास कोहनूर हीरा भी होता, तो उसकी भेंट करने में मुझे पसोपेश न होता। कजाकी ने विस्मित होकर पूछा ----ये पैसे कहाँ पाये, भैया से कहा~मेरे ही तो हैं। कजाकी-तुम्हारी अम्मांजी तुमको मारेंगी , कहेंगी--कजाकी ने फुसलाकर मॅगवा लिए होंगे । भैया, इन पैसों की मिठाई ले लेना और आटा मटकेमें रख देना। मैं भूखों नहीं मरता । मेरे दो हाथ है। मैं भला भूखों मर सकता हूँ? मैंने बहुत कहा कि पैसे मेरे हैं, लेकिन कजाकी ने न लिए। उसने वड़ी देर तक इधर-उधर को सैर कराई, गीत सुनाये और मुझे घर पहुँचाकर चला गया। मेरे द्वार पर आटे की टोकरी भी रख दी। मैंने घर में कदम रखा ही था कि अम्माँजीने डॉटकर कहा-क्यों रे चोर, तू आटा कहाँ ले गया था ? अब चोरी करना सीखता है ! वता किसको आटा दे आया, नहीं तो तेरी खाल उवेड़कर रख दूंगी। मेरी नानी मर गई । अम्मा क्रोधमें सिंहिनी हो जाती थीं। सिटपिटाकर बोला-- किसी को तो नहीं दिया। अम्मा-तूने आटा नहीं निकाला ? देख, कितना आटा सारे आँगन में बिखरा पड़ा है। मैं चुप खड़ा था । वह कितना ही धमकाती थीं, चुमकारती थी , पर मेरी ज़बान न खुलती थी। आनेवाली विपत्ति के भय से प्राण सूख रहे थे। यहां तक कहने की हिम्मत न पड़ती थी कि विगढ़ती क्यों हो, आटा तो द्वार पर रखा हुआ है। न उठाकर लाते ही बनता था, मानो क्रिया-शक्ति ही लुप्त हो गई हो। मानो पैरों मे हिलने की सामर्थ्य ही नहीं। सहसा कजाकी ने पुकारा~यहूजी, आटा यह द्वार पर रखा हुआ है । भैया मुझे देने को ले गये थे। यह सुनते ही अम्माँ द्वार की ओर चली गई। कजाकी से वह परदा न करती
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१५०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।