कजाकी १४१. . मैंने दौड़कर उसे कजाकी की गोद से ले लिया । वह हिरन का बच्चा था । आह ! मेरी उस खुशी का कौन अनुमान करेगा ? तबसे कठिन परीक्षाएं पास की, अच्छा पद भी पाया, रायवहादुर भी हुआ , पर वह खुशी फिर न हासिल हुई। मैं उसे गोद में लिये, उसके कोमल स्पर्श का आनन्द उठाता घर की ओर दौड़ा। कजाकी को आने में: क्यों इतनी देर हुई, इसका खयाल ही न रहा। पूछा-यह कहाँ मिला कजाकी 2 कजाकी-भैया, यहाँ से थोड़ी दूर पर एक छोटा-सा जगल है। उसमें बहुत से हिरन हैं। मेरा बहुत जी चाहता था कि कोई बच्चा मिल जाय, तो तुम्हें दूं। आज. यह बच्चा हिरनों के झुण्ड के साथ दिखलाई दिया। मैं झुण्ड की ओर दौड़ा, तो सब- के-सब भागे। यह बच्चा भी भागा , लेकिन मैंने पीछा न छोड़ा । और हिरन तो बहुत दूर निकल गये, यही पीछे रह गया । मैंने इसे पकड़ लिया । इसी से तो इतनी मैंने देर हुई। यों बातें करते हम दोनों डाकखाने पहुंचे। वाबूजी ने मुझे न देखा, हिरन के बच्चे को भी न देखा, कजाकी ही पर उनकी निगाह पड़ी। विगढ़कर बोले - आज इतनी देर कहां लगाई ? अब थैला लेकर आया है, उसे लेकर क्या करूँ ? डाक तो चली गई । वता, तूने इतनी देर कहाँ लगाई ? कजाकी के मुंह से आवाज़ न निकली। बावूजी ने कहा--तुझे शायद अब नौकरी नहीं करनी है। नीच है न, पेट भरा तो मोटा हो गया। जब भूखों मरने लगेगा, तो आँखें खुलेगी। कजाकी चुपचाप खड़ा रहा। चाबूजी का क्रोव और बढ़ा। बोले-अच्छा, थैला रख दे और अपने घर की राह ले । सुअर, अव डाक लेके आया है ! तेरा क्या बिगड़ेगा, जहाँ चाहेगा, मजूरी कर लेगा। माथे तो मेरे जायगी-जवाब तो मुझसे तलव होगा। कजाकी ने रुआंसे होकर कहा-सरकार, अब कभी देर न होगी। बावूजी-आज क्यो देर की, इसका जवाब दे ? कजाकी के पास इसका कोई जवाब न था। आश्चर्य तो यह था कि मेरी जवान भी बन्द हो गई । बाबूजी वड़े गुस्सेवर थे। उन्हें काम बहुत करना पड़ता था, इसीसे मात-बात पर झुंझला पड़ते थे। मैं तो उनके सामने कभी आता ही न था। वह भी; -
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